गुरुवार, 6 जून 2013


..तो गलत राह चुन लेंगे प्रतिनिधि



झारखंड में पंचायत निकायों को अबतक पर्याप्त अधिकार स्थानांतरित नहीं किये गये हैं. केंद्र की ओर से संचालित दर्जनों योजनाओं के बेहतर कार्यान्वयन में पंचायत निकायों की भूमिका सबसे कारगर हो सकती है. अगर पंचायत निकायों को पर्याप्त अधिकार दिये जाते हैं, तो इससे व्यवस्था ज्यादा पारदर्शी होने के साथ ही उसमें लोगों की सीधी भागीदारी भी बढ़ेगी. पंचायत निकाय, उनकी भूमिका, राज्य में मनरेगा की स्थिति पर सामाजिक कार्यकर्ता व सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भोजन के अधिकार (राइट टू फूड) पर गठित आयोग के सदस्य बलराम सिंह से राहुल सिंह की बातचीत का प्रमुख अंश :



तीन दशक बाद झारखंड में पंचायती राज व्यवस्था आखिरकार लागू हो गयी. अब आगे इससे क्या उम्मीदें हैं

झारखंड में 32 साल बाद पंचायत चुनाव हुआ है. हम दूसरे राज्यों से सीख लें और  काम करें. हमें अपने संभावित मजबूत पक्ष को चि?ित कर काम करना होगा. आदिवासी क्षेत्र का आधा हिस्सा शिडयूल एरिया (अनुसूचित क्षेत्र) है. हमें उसके लिए काम करना है. ऐसा होगा तभी विकास सही मायने में हो पायेगा. सरकार ने यह जिम्मेदारी यूएनडीपी को दी है. जबकि उसे अपनी दृष्टि स्पष्ट करनी चाहिए. 


पंचायत प्रतिनिधियों को अब तक पर्याप्त अधिकार नहीं मिले हैं, इसको लेकर संशय व संदेह की स्थिति क्यों है?

पंचायती राज व्यवस्था में सबसे पहले पावर ट्रांसफर किया जाना चाहिए. यह चुने हुए जनप्रतिनिधियों का संवैधानिक अधिकार है. अगर कोई सरकार ऐसा नहीं करती है, तो यह गैर संवैधानिक है. ग्रामसभा हमारा स्ट्रेंथ एरिया(मजबूत पक्ष) है. इसे अधिकार दिया ही जाना चाहिए. समुदाय के स्तर पर फैसले लिये जाने की व्यवस्था लागू होनी ही चाहिए. ऐसा होगा तभी सच्चा लोकतंत्र स्थापित होगा. वर्तमान में राज्य सरकार ने व्यक्ति केंद्रित व्यवस्था बना दी है यानी मुखिया को उसके अधिकार नहीं दिये गये, लेकिन उससे चेक पर हस्ताक्षर करवाये जाते हैं. मुख्यमंत्री कुछ कहते हैं, मुख्य सचिव कुछ कहते हैं और होता कुछ और है. मुखिया को अधिकार नहीं देकर सरकार संवैधानिक दलाल खड़ा करने का काम कर रही है. यह खतरनाक है. सरकार खुद को उनका रोल मॉडल बना रही है. मनरेगा में प्रावधान है कि कम से कम 50 प्रतिशत काम पंचायतों के माध्यम से हो, अगर उसकी संरचनात्मक व्यवस्था नहीं करेंगे, तो मुखिया ठेकेदार का काम करेंगे. आदर्श व्यवस्था में ग्रामसभा से योजना पास होनी चाहिए, एक कार्यान्वयन एजेंसी होनी चाहिए. सारे फैसले जिला प्रशासन लेता है. पंचायत अगर शासन की इकाई है और उसके माध्मय से राशि खर्च नहीं होगी, उसे उसका रोजगार से लेकर योजना के क्रियान्वयन तक सीधा फायदा नहीं होगा, तो उससे जुड़े लोग दूसरा तरीका निकालेंगे. यकीन कीजिए वह तरीका गलत होगा. 


तो क्या राजनीतिक वर्ग पंचायत प्रतिनिधियों को अधिकार दिये जाने से स्वयं को असुरक्षित महसूस कर रहा है

बिल्कुल. अंगरेज भी कहते थे कि आजाद होने पर भारत नहीं चलेगा. इसी तर्क के आधार पर वे हमें आजादी नहीं देते थे. पर, हमने आजादी ली, देश भी चलाया. आज अंगरेजों की तरह ही राजनीतिक वर्ग यानी सरकार का मानना है कि पंचायत प्रतिनिधियों को अधिकार दे देंगे, तो वे व्यवस्था नहीं चला पायेंगे. मैं कहूंगा यह सोच सिरे से गलत है. ऐसे में एक सवाल उठता है कि अगर विधानसभा व संसद में बैठे लोगों से कहा जाये कि आप से देश व राज्य नहीं चल रहा है, आप में से कई गंभीर आरोपों में जेल में बंद हैं, तो आपके पास अधिकार क्यों? या फिर यह कहें कि आपके विधायक व सांसद चुने जाने के दो या तीन साल बाद आपको आपके अधिकार दिये जायेंगे, तो उनका क्या रुख होगा?


अन्य राज्यों का अनुभव क्या बताता है?
पंचायती राज व्यवस्था दोधारी तलवार है. पूरे देश में पंचायतों का अनुभव यही कहता है. जहां उन्हें जिम्मेवार बनाया गया, वहां सारे साधन हैं व उनकी संस्था के प्रति जिम्मेवारी भी है. उसके उलट कई राज्यों में जहां पंचायत निकायों से जुड़े लोगों को पर्याप्त अधिकार नहीं दिये गये, वैसी जगहों पर मुखिया पर पंचायत सेवक भी अधिकार चलाता है.


पंचायत प्रतिनिधियांे को उत्तरदायी कैसे बनाया जा सकता है?
पंचायत प्रतिनिधियों को अगर जिम्मेवारी सौंपी जाती है, तो वे पंचायत व ग्रामसभा के प्रति जवाबदेह बनेंगे. और, बेहतर यही होगा कि उन्हें ग्रामसभा व पंचायत के प्रति ही जवाबदेह बनाना चाहिए न कि ब्लॉक के प्रति. इससे समुदाय के प्रति उनमें उत्तरदायित्व आयेगा. इससे मनरेगा के अलावा ग्रामीण विकास के लिए चलायी जा रही दर्जनों योजनाएं भी सुधरेंगी. उन्हें लगेगा कि यह उनकी योजना है, उनके गांव के विकास के लिए है, इसका सीधा फायदा उन्हें होगा, तो वे जागरूक रहेंगे. इसके अलावा सरकार की लाठी व टेकAोलॉजी व्यवस्था नहीं सुधार सकती एक साल से ज्यादा वक्त में हमने व्यवस्था को सुधारने व सशक्त बनाने के लिए क्या किया है. हम जनप्रतिनिधियों को अधिकार देने में जितना विलंब करेंगे, वह राज्य के लिए उतना ही खतरनाक होगा. अगर वे गलत रास्ते पर चले जाते हैं, तो उन्हें सही रास्ते पर लाना बेहद मुश्किल होगा.


मनरेगा की झारखंड में क्या स्थिति है? इसमें कितनी पारदर्शिता है? 
मनरेगा के सिस्टम में बनायी गयी पारदर्शिता है. यह क्लास के लोगों के लिए है. मेरा मतलब है वैसे लोगों के लिए जो कंप्यूटर पर बैठ कर चीजों को देखते हैं, इंटरनेट पर डाटा व फैक्ट डाउनलोड करते हैं. पर सवाल यह है कि हम पारदर्शिता का मतलब क्या समझते हैं? पारदर्शिता समाज की 70 प्रतिशत उस आबादी के लिए होनी चाहिए, जिससे मनरेगा के श्रमिक आते हैं. जो इसके तहत काम करते हैं और काम मांगते हैं. अभी उनके लिए सीधी पारदर्शिता नहीं हैं. मेरा मानना है कि उस दिशा में प्रयास होना चाहिए. पर, अफसोस वह नहीं हो रहा. भारत सरकार व राज्य की कोशिश में वह है ही नहीं. इसके बावजूद मैं यह कहूंगा कि मनरेगा में सुधार की काफी गुंजाइश है. किसी दूसरे क्षेत्र में इतने मामले नहीं उजागर होते, जितने मनरेगा में. 
पंचायत चुनाव से मनरेगा को थोड़ा फायदा हुआ है. अन्य को नहीं हुआ है. यह एक कानून है, इसलिए इसमें जो व्याख्या की गयी है, उसे लागू करना जरूरी है. बाकी जो कल्याणकारी कार्य हो रहे हैं, वे योजना हंै, इसलिए उनकी उपेक्षा की जा रही है.  


मनरेगा में लोकपाल जैसा तंत्र स्थापित करने से भ्रष्टाचार पर नियंत्रण लगा है?
देखिए, सोशल ऑडिट की व्यवस्था पहले भी रही है. फूड फॉर वर्क (काम के बदले भोजन), पीडीएस (जन वितरण प्रणाली) का भी सोशल ऑडिट किया गया है. राज्य सरकार ने इसे संस्थागत रूप देने की कोशिश की है. सोशल ऑडिट डायरेक्टरेट बनाने का काम चल रहा है. अब लोकपाल जैसी संस्था बनी है, तो उसका ग्रामसभा से सामना होना चाहिए. पर, ज्यादा ऊर्जा व समय खानापूर्ति में चला जाता है. जन सुनवाई में कह दिया जाता है कि शिकायत नहीं मिली. मैं कहूंगा कि पॉजीटिव सोशल ऑडिट हो.


क्या मनरेगा के तहत रोजगार दिवसों की संख्या बढ़नी चाहिए?
एक्ट में न्यूनतम 100 दिन व अधिकतम भी 100 दिन ही रोजगार देने का प्रावधान है. इसके भी कारण व तर्क है. चूंकि तंत्र की खामियों के कारण रोजगार देने का यह तय लक्ष्य भी पूरा नहीं होता, तो उसी को इस तर्क का आधार बना दिया गया है कि चूंकि 100 दिन का रोजगार भी लोग नहीं करते, तो उसे बढ़ाने की क्या जरूरत है.
होता यह है कि आज की तारीख (किसी एक दिन) में ही पांच हजार लोग काम मांगते हैं और उन्हें उसी दिन काम उपलब्ध भी करा दिया जाता है. ऐसा कागज में दिखाया जाता है. ऐसे उदाहरण ही इसकी पारदर्शिता पर सवाल खड़े करते हैं. जबकि होना यह चाहिए कि पहले रोजगार के लिए आवेदन दिया जाये, फिर अर्हताओं व अन्य चीजों की पड़ताल कर देखा जाना चाहिए कि अमुक व्यक्ति उसके लिए पात्र है या नहीं. उसके बाद रोजगार उपलब्ध कराया जाना चाहिए. पारदर्शी व्यवस्था होने से लोगों का जुड़ाव और बढ़ेगा. अगर ऐसा होगा, तो कार्य दिवस बढ़ाने की भी जरूरत प्रत्यक्ष रूप से महसूस होगी.

नौकरशाही से भी पंचायत को अधिकार मिलने में दिक्कतें आ रही हैं?
नौकरशाही घोड़े की तरह है. झारखंड में उस पर राजनीतिक वर्ग की पकड़ नहीं है. इसमें व्यवस्थागत खामियां हैं. अगर आप घोड़े की सवारी नहीं कर सकेंगे, तो वह आप पर ही सवार हो जायेगा. राज्य में रोज मंत्री-सचिव में झगड़े हो रहे हैं, अखबारों में किस्से छप रहे हैं. अगर राजनीतिक पद पर बैठा व्यक्ति स्वच्छ हो तो उस पर नौकरशाह हावी हो सकता है? जनता के चुने हुए प्रतिनिधि पर भला कोई नौकरशाह कैसे हावी हो सकता है. अगर ऐसा हो रहा है, तो यह खतरनाक है. यह स्थिति लोकतंत्र को कहां ले जायेगी. यह भी सवाल उठता है कि नौकरशाहों को यह हैसियत किसने दी. याद रखिए, राजनेता की एक चूक नौकरशाह को हमेशा के लिए हावी बना देती है. 



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