पंचायत प्रतिनिधि चाहें तो लग सकती हैं बेटियों के खरीदे-बेचे जाने के कारोबार पर रोक. अब सरकार और प्रशासन को भी है उनसे ही उम्मीद.
ह हम सब जानते हैं कि हर साल झारखंड की हजारों लड़कियां दूसरे राज्यों में बेच दी जाती हंै. वहां उन बच्चियों और किशोरियों का हर तरह का शारीरिक और मानसिक शोषण होता है. ये लड़कियां एक बार घर से निकलती हैं तो दसियों साल बाद तक घर लौट कर आ नहीं पाती हैं. लंबे समय से सरकार, प्रशासन और स्वयंसेवी संस्थाएं इस समस्या से निजात पाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाये हुए है. मगर इस तरह की घटनाओं में किसी तरह की कमी नहीं आ रही. अब पंचायती राज व्यवस्था लागू होने के बाद उम्मीद जगी है कि यह नयी व्यवस्था इस समस्या से निजात पाने में अधिक कारगर होगी. इसमें कोई शक है भी नहीं क्योंकि गांव-मुहल्ले के लोगों से यह बात कभी नहीं छिप सकती. अगर नयी पंचायती सरकार ने ठान लिया कि वे अपने पंचायत में से एक भी लड़की को बिकने नहीं देंगे तो यह समस्या बहुत जल्द झारखंड का दामन छोड़ देगी.
बेटियों की पीड़ा समझें
इस समस्या के खत्म न होने के पीछे मुख्यत: ग्रामीणों में जागरुकता की कमी है. लोग पलायन और मानव तस्करी के बीच के फर्क को समझ नहीं पाते. पिछले दो साल से इससे निजात पाने में जुटी संस्था महिला सामाख्या की निदेशक स्मिता गुप्ता बताती हैं कि गांव के लोग यही समझते हैं कि अगर कोई बच्ची गायब हुई है तो वह बाहर कमाने गयी है. हालांकि उन्हंे यह पता होता है कि इस काम में दलाल लगे हैं और रुपयों का भी लेन-देन हो रहा है. मगर लोगों को लगता है कि गरीबी है तो लाचार इनसान कुछ भी कर सकता है. सबसे पहले इस भावना को बदलने की जरूरत है. लोगों को यह बताने की जरूरत है कि उनके गांव की बच्ची जो बाहर बेची जा रही है उसके साथ क्या-क्या अपराध होते हैं और उनका किस तरह शोषण होता है. अगर इस संबंध में लोगों को ठीक से जानकारी मिले तो वे अपने गांव में सक्रिय बिचौलियों का खुल कर विरोध करेंगे.
अदावत के डर से ईमान मत बेचें
स्मिता जी बताती हैं कि कई बार ग्रामीण भय वश और झगड़ा-झंझट से बचने के लिए भी बिचौलियों का नाम जाहिर नहीं करते. काम के दौरान कई बार उन्हें ऐसे लोग भी मिले जिनकी बेटी दस साल से गायब है मगर उनमें पुलिस के पास जाने की हिम्मत नहीं थी. अगर पंचायत एक जुट हो कर ठान ले और इसका विरोध करे तो बिचौलियों का हौसला कमजोर होगा और पीडि़तों में विरोध करने और शिकायत करने की हिम्मत आयेगी. हर पंचायत को यह फैसला करना चाहिए और प्रण लेना चाहिए कि उनके गांव की एक भी बेटी इनसानों की अस्मत का व्यापार करने वालों के हाथ नहीं बिकेगी.
स्कूलों पर रखें नजर
मानव तस्करी को रोकने में जुटी संस्थाओं का आकलन है कि हाल के दिनों में ज्यादातर लड़कियां स्कूलों से गायब हो रही हैं. इसका साफ-साफ अर्थ है कि बिचौलिये स्कूलों को टारगेट कर रहे हंै और वहां का कोई कर्मी इनके संपर्क में आ जा रहा है और इनकी मदद कर रहा है. अत: स्कूलों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है. इस काम में स्कूल की समिति और शिक्षा समितियां विशेष भूमिका निभा सकती हैं.
उनके पास यह आंकड़ा होना चाहिए कि स्कूलों में आठ साल से अधिक उम्र की कितनी लड़कियां हैं. कौन सी ऐसी लड़की है जो नियमित नहीं आ रही. स्कूलों में कहीं कोई संदिग्ध किस्म का व्यक्ति तो काम नहीं कर रहा.
सारी समस्या की जड़ गरीबी है. वही एक बाप को चंद पैसों के लिए अपनी बेटी को बेचने के लिए मजबूर करती है. अत: पंचायती राज संस्था को ध्यान में रखना चाहिए कि ऐसे लोगों को प्राथमिकता के स्तर पर बीपीएल कार्ड मुहैया करायें और सरकारी सुविधाओं का लाभ दिलायें. इससे काफी हद तक समस्या में कमी आयेगी.
स्वधार और उज्जवला योजनाएं बनायेंगी सबला
केंद्र सरकार के समाज कल्याण विभाग इन हालातों से बचाव और पीडि़त लड़कियों की मदद के लिए स्वधार और उज्जवला योजना चला रही है. उज्जवला योजना तो खास कर मानव तस्करी की शिकार लड़कियों और महिलाओं के लिए ही है. इन योजनाओं के तहत जागरुकता, बचाव के साथ-साथ उनके पुनर्वास और उन्हंे रोजगार से जोड़ने के लिए कई सुविधाएं उपलब्ध हैं. इन योजनाओं के संचालन में पंचायतों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है. वे जागरुकता और बचाव का काम तो कर ही सकते हैं, पीडि़त महिलाओं को आश्रय भी उपलब्ध करा सकते हैं और उनके लिए मनरेगा और दूसरी योजनाओं के जरिये रोजगार भी उपलब्ध करा सकते हैं. इसके अलावा सबला योजना 11 से 18 साल की लड़कियों के कौशल के विकास में योगदान देती हैं. जिससे आगे चलकर वे अपने पैरों पर खड़ी हो सकें
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