मिला जनता का प्यार
पांच राज्यों के चुनावी नतीजे

राहुल बनाम अखिलेश
इस चुनाव को राहुल बनाम अखिलेश के चश्मे से भी देखा गया. क्योंकि जहां राहुल गांधी कांग्रेस के युवराज थे, अखिलेश सपा के. दोनों पार्टियां चाह रही थी कि उनके युवराज एक शानदार सफलता के बाद मुखिया के रूप में काबिज हो जायें. बताया जाता है कि राहुल जंग भले ही यूपी में लड़ रहे थे, मगर उनका निशाना पीएम की कुरसी था. जो इस चुनाव में मिली करारी हार के बाद फिलहाल लंबे समय के लिए टल गया है. अखिलेश यूपी की कुरसी पर काबिज होना चाहते थे और उन्होंने यह करके दिखा दिया. इसलिए इस चुनाव को अखिलेश बनाम राहुल के रूप में उल्लेखित करने की स्पष्ट सूरत बन गयी थी. हालांकि सबसे रोचक बात तो यह थी कि अखिलेश की टीम में राहुल को मात देने के लिए उन्हीं की तरकीब को अपनाया. पढ़े-लिखे और साफ-सुथरी छवि वाले युवाओं की टीम बनायी और उनकी बतायी राह पर चल पड़े. जबकि बाद के दिनों में राहुल को साफ-सुथरी छवि अपनी कमजोरी लगने लगी थी. वे और उनकी टीम के बड़े-बड़े नेता जैसे यह साबित करने में जुट गये थे कि कांग्रेस दबंगई में किसी से पीछे नहीं है. बात-बात पर आचार संहिता को ठेंगा दिखाने से लेकर सभाओं में राहुल द्वारा कुरते की बांह को ऊपर चढ़ा कर गुस्से में बातें करने तक के पीछे योजना राहुल की छवि एंग्री यंग मैन के रूप में पेश करने की थी. वे भूल गये थे कि यूपी के लोग अब अपराध और दबंगई से ऊब चुके हैं. वे बदलाव चाहते हैं. लिहाजा नकली एंग्री यंग मैन हार गये और असली एंग्री यंग मैन शराफत का चोला दिखाकर जीत गया.
नतीजों के बाद मीडिया में आया हर विश्लेषण सपा को मिली इस जबरदस्त जीत के पीछे अखिलेश का हाथ बता रहा है. दरअसल अखिलेश का यह करिश्मा अप्रत्याशित नहीं था. इसके लिए पूरी योजना तैयार की गयी थी और एक पूरी की पूरी टीम इसे अंजाम तक पहुंचाने में दिन-रात एक कर जुटी थी. मगर हर योजना सफल नहीं हो जाती यह बात लोगों ने इस चुनाव में भी देखी. क्योंकि कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी के पीछे अखिलेश से काफी बड़ी टीम बड़ी योजनाओं को आकार देने में जुटी थी. इसके बावजूद वह योजना कारगर साबित नहीं हुई. अखिलेश की टीम के इस मैसेज ने क्लिक किया कि अब सपा बदलने को तैयार है.
उसने अमर सिंह जैसे नकारात्मक छवि वाले नेताओं से किनारा किया और डीपी यादव जैसे दबंगों को बाहर का रास्ता दिखाया. ठेठ स्थानीय छवि वाली पार्टी सपा के चुनावी विज्ञापनों में स्वर्णिम उत्तर प्रदेश का सपना पेश किया जा रहा था. कहीं मायावती के कुशासन की कहानियां नहीं थी. अंग्रेजी तक के नाम से चिढ़ने वाले मुलायम की पार्टी ने जब लैपटॉप और टेबलेट का वादा किया तो लोगों ने हैरत से उंगलियां दांतों तले दबा ली. इस जीत ने अखिलेश की प्रबंधकीय क्षमता पर भी मुहर लगायी है. उसने जिस तरह पूरे चुनाव अभियान का नेतृत्व किया और जिस सम्मानजनक तरीके से अपने लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की वह उसके राजनीतिक रूप से परिपक्व होने की बात पर स्वीकृति की मुहर लगाते हैं. लोग उम्मीद कर रहे हैं कि आने वाले समय में यूपी को अखिलेश के इस कौशल का भरपूर लाभ मिलेगा.
अखिलेश फैक्टर
हालांकि इस चुनावी नतीजों ने अखिलेश को सबकुछ दे डाला है. जबरदस्त जीत से लेकर मुख्यमंत्री की कुरसी तक. मगर उनकी राहें आसान नहीं है इसका इशारा चुनावी नतीजों के तत्काल बाद मिल गया. सपाइयों ने चुनाव के दौरान भले ही शराफत का चोला ओढ़ रखा हो, मगर वे ज्यादा दिनों तक शांत रहेंगे इस बात की उम्मीद कम ही नजर आती है. ऐसे में सबसे बड़ी चुनौती अपनी ही पार्टी के उग्र कार्यकर्ताओं को अनुशासित बना कर रखने की है. पांच साल बसपा की दबंगई बरदास्त करने के बाद भी अगर वे बदले की जगह पर बदलाव को तरजीह देते हैं तभी उनकी सफलता सार्थक कही जा सकेगी. वर्ना क्षणिक बदलाव का इतिहास लंबा नहीं होता.
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