गुरुवार, 13 जून 2013

आमुख कथा4: न घूंघट की कैद, न देहरी की छेक

अनुपमा
बिहार में एमपी/एसपी बहुत पॉपुलर शब्द है. लेकिन यह एमपी मेंबर ऑफ पार्लियामेंट के लिए नहीं बल्कि मुखियापति के रूप में इस्तेमाल में लाया जाता है और एसपी का आशय होता है सरपंच पति. बिहार में पंचायत चुनाव में एमपी/एसपी जैसे शब्दों का नये अर्थ के साथ नया उभार है. वहां पंचायत चुनाव के समय महिला उम्मीदवारों की छोटी तसवीरों के साथ उससे कई गुना बड़ी तसवीरें उनके पति के लगाये जाने का चलन है. जब चुनाव में महिलाएं जीत कर आयीं भी तो पति का साया और गहराया. पुरुषों के साये से मुक्त नहीं हो पायीं. इसी वजह से कई जगह ऐसे भी हैं जहां मुखियापति-सरपंचपति को ही मुखिया-सरपंच के रूप में जाना-माना जाता है. कागज पर हस्ताक्षर करने के काम को छोड़ बाकि सभी काम वही करते हैं. लेकिन इस मामले में बहुत हद तक झारखंड सौभाग्यशाली रहा है. बिहार के उलट झारखंड में ऐसे इक्के-दुक्के मामले देखने को मिलते हैं.
पंचायत चुनाव को यहां एक साल ही बीते हैं लेकिन अधिकांश महिलाएं खुद निर्णायक की भूमिका में हैं. अगर फंड के पेंच को छोड दें तो यहां मानसिकता अलग किस्म की है. भले ही अभी यहां की जनप्रतिनिधियों को पूरी शक्ति नहीं मिल सकी हैं लेकिन जितने अधिकार मिले हैं, उसका उपयोग सरपंच, मुखिया, जिला पार्षद के पद पर आसीन महिलाएं खुद कर रही हैं. योजनाओं के क्रियान्वयन के साथ-साथ अन्य मसले पर भी. निर्णायक भूमिका में आकर. कहा भी गया है कि किसी समाज और देश के विकास को अगर देखना हो तो उसका आकलन महिलाओं की स्थिति से लगाया जा सकता है. महिलाएं सशक्त होंगी तो राज्य सशक्त होगा. देश सशक्त होगा.
बिहार और झारखंड के जिलों में दौरा करने के बाद यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि बिहार में आज भी अधिकांश महिलाएं सिर्फ रबर स्टांप की तरह हैं. ग्राम सभा, मीटिंगों और अन्य मामलों में उनकी उपस्थिति अनिवार्य तो होती है लेकिन निर्णायक नहीं. उनके साथ उनके पति परछाईं बन कर चलते हैं. बिहार की अधिकांश महिला प्रतिनिधि सिर्फ अपना हस्ताक्षर या अंगूठा उन निर्णयों पर लगा कर मौन सहमति दे देती हैं. या यूं कहें कि उनके इशारे पर काम करती हैं. लेकिन झारखंड के जिले में आपको सुखमनी, पानमुनी, लखीमुनी, सरिता, अर्चना मिल जायेंगी जो अपनी मर्जी से सिर्फ दहलीज पार कर रही हैं बल्कि अपनी इबारत खुद लिख रही हैं. विकास के कामों में महती भूमिका  निभा रही हैं. चाहे वह रांची की सुंदरी तिर्की हों, देवघर की सरिता यो फिर जमशेदपुर की सविता. सभी महिला प्रतिनिधि खुद ही योजनाएं बनाती हैं, पुरुष की छत्रछाया से कोसों दूर. जिनके पति सहयोगी की भूमिका में हैं वो भी सिर्फ बाइक चलाने या फिर रसोईघर संभालने तक. राज्य निर्वाचन आयोग के अनुसार 2010 के पंचायत चुनाव में 29,415 महिलाएं निर्वाचित हुई हैं. लोहरदगा की ललिता उरांव रेजा का काम किया करती थीं  और उनके पति मिस्त्री हैं. वे  लोहरदगा के उरुमुड़ू पंचायत से जीती हैं. कहती हैं कि मैं आर्थिक स्वावलंबन के साथ-साथ घर बाहर दोनों जगह निर्णायक भूमिका निभाती हूं. हां, मेरे पति घर के काम में कभी-कभार जरूर मेरी मदद करते हैं, लेकिन काम के सिलसिले में हस्तक्षेप नहीं करते. हरदाग पंचायत की सिसेलिया रुंडा व्यंग्यात्मक अंदाज में मुस्कुरा कर कहती हैं कि मीटिंग में जाना हो या फिर कहीं और मेरे पति का सहयोग हमेशा मुझे मिलता है. वो हमेशा ड्राइविंग सीट पर होते हैं, लेकिन वह सिर्फ गंतव्य तक पहुंचाने और बाइक चलाने तक उसके बाद मैं ही सारे काम करती हूंउनके पति आर्मी में रहे हैं.
जोडि़या पंचायत की पार्वती केरके˜ घरेलू महिला थीं. उनके पति प्राइमरी स्कूल के शिक्षक हैं लेकिन पार्वती के किसी काम में हस्तक्षेप नहीं करते. हां, जब कभी पार्वती पूछती हैं तो सलाह जरूर दे देते हैं. वो कहते हैं कि चुनाव में जीती तुम हो तो निर्णय भी तुम्हें खुद ही लेना चाहिएरांची विश्वविद्यालय में जनजातीय विभाग के भूतपूर्व प्रोफेसर गिरिधारी राम गोंझू कहते हैं कि आदिवासी समाज खुला समाज रहा है. यहां मातृसत्ता को तरजीह दी जाती रही है और महिलाएं घर में भी निर्णायक की भूमिका में रहती हैं. इसीलिए मुखिया या पार्षदपति के सहयोग की जरूरत नहीं पड़ती.
आदिवासी बहुल इलाकों की स्थिति तो ठीक है लेकिन कुछ गैर आदिवासी महिलाएं यहां भी इस साये में हैं. लेकिन पंचायती राज के उपनिदेशक मोती राम ने बताया कि उपायुक्तों से यह कहा गया है कि इस तरह के आचरण पर रोक लगाया जाये. यानि यह कहा जा सकता है कि बिहार की मुखिया पतियों और प्रतिनिधियों को झारखंड से सीख लेनी चाहिए. सामाजिक कार्यकर्ता शेखर कहते हैं कि आदिवासी समाज महिलाओं को बराबरी का दर्जा देता है. वह हर स्तर पर उन्हें बराबर का हक देता रहा है. (यह आलेख झारखंड सरकार की मीडिया फैलोशिप के अंतर्गत लिखा गया है.



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