इंटरमीटिएट तक शिक्षा, पूर्व में गृहिणी थीं. इनके पति संजय यादव गोड्डा के
विधायक हैं.
प्राथमिकता : सिंचाई व लड़कियों की शिक्षा.
नये नेतृत्व का हुआ उदय
तीन दशकों के बाद राज्य में हुए पंचायत चुनाव ने विभिन्न स्तरों पर राज्य में नये नेतृत्व का उदय हुआ है. महिलाएं, किसान, युवा यहां तक कि खेत में काम करने वाली महिला व मनरेगा श्रमिक भी पंचायत राज निकाय में चुन कर आये. मुखिया को पंचायत में सम्मान मिला पर अधिकार की कमी खलती रही. जनप्रतिनिधियों को अधिकार नहीं मिलने से विकास कार्य भी प्रभावित हो रहा है. अगर हमें अधिकार दिया जाये, तो हम जिले के विकास के लिए बेहतर कार्य करेंगे. राजनीति में मैं पति की प्रेरणा से आयी. गोड्डा मायका होने के कारण यहां के लोगों के लिए मैं बेटी व बहन की तरह हूं. यह जिला पहले धान का कटोरा कहा जाता था, पर आज यहां सिंचाई का संकट है. बच्चियों के लिए बेहतर शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए. पेयजल व सिंचाई के संकट का हल, जिले में हरियाली व खुशहाली बढ़ाना मेरा लक्ष्य है.
मैं नाम ज्योति बेहर है. उम्र 30 साल. साधारण कद-काठी. काम करने के मामले में अद्भुत जीवटता. वह झारखंड के गुमला जिले के डुमरी प्रखंड की हैं. ज्योति से हमने झारखंड में पंचायती सरकार बनने के बाद उसके पेच पर बात करने के इरादे से संपर्क साधा, राज्य और देश की बातें की. गुमला के गुमनाम इलाके की इस नेत्री के नजरिये को जानते हैं, बहुत हद तक उन्हीं के शब्दों में
नहीं चाहती कि अंडमान में जैसे जारवा जनजाति के लोगों को म्यूजियम की चीज बना दिया गया है और उन्हें देखने आनेवाले पर्यटक आदेश-निर्देश को ताक पर रख उन्हें देखते हुए छेड़ते हैं, वैसी ही परिस्थितियों का दास हमारा कोरबा समूह भी हो जाए. आपको तो पता है कि सरकारी फाइलों में कोरबा विलुप्त हो रही जनजातीय प्रजाति में शामिल है. लेकिन फाइलों से बाहर निकाल कर सरकार धरा पर उनकी सुधि नहीं लेती. मैं भी कोरबा हूं. पर मैंने हॉस्टल में रहकर इंटर तक की पढ़ाई की है. बचपन से ही सोचती थी कि बड़ी होकर अपने समुदाय के लिए कुछ करूंगी. चूंकि हमने अपने समाज की विडंबनाओं को करीब से भोगा है. वर्तमान तरक्की के पैमाने पर हमारा समाज बहुत पिछड़ा हुआ है और विकास की लय से कोसों दूूर. हमेशा सोचती थी कि बदतरी को बेहतरी में बदलने के लिए जो संभव होगा, कोशिश करूंगी. पिछले साल जब पंचायत चुनाव की घोषणा हुई तो मुखिया के लिए मैदान में उतरने से पहले यही सब बातें दिमाग में थी. लोगों ने साथ दिया, जीत भी गयी. हमारे डुमरी में 1500 से भी ज्यादा कोरबा जनजाति के लोग रहते हैं.
अब विडंबना देखिए. पंचायत चुनाव हुए एक साल बीत गये हैं. लेकिन पंचायतों को जितनी शक्तियां मिलनी चाहिए थीं, वो अब तक नहीं मिलीं. मैं जानती हूं और अपने अनुभव के आधार पर कह रही हूं कि इसमें सबसे बड़ी बाधा सरकारी अधिकारी हैं. वे ग्रामसभा की योजनाओं का अनुमोदन ही नहीं करते. एक घटना बताती हूं. हमारी पंचायत को चार लाख चौरासी हजार रुपये मिले. पैसे अकाउंट में आये. इससे कंप्यूटर, आलमीरा, फर्नीचर आदि खरीदा जाना था, लेकिन प्रखंड विकास पदाधिकारी का कोई निर्देश नहीं मिला. हमने सिर्फ सात हजार रुपये का फर्नीचर खरीदा. उसके बाद वार्ड पार्षदों के साथ मिलकर ग्राम सभा में एक बैठक बुलायी. विकास योजना तैयार कर अनुमोदन के लिए बीडीओ को भेजा. बीडीओ शिशिर कुमार सिंह इसके लिए तैयार ही नहीं हो रहे थे. वे अपने स्तर से जनता को बरगलाने में लगे रहे. आखिर में मैंने फैसला कर लिया कि जब जनता के विकास के लिए कुछ कर ही नहीं पाउंगी तो बेहतर है इस्तीफा दे दूं. और मैंेने इस्तीफा दे भी दिया. लेकिन जब इस बात की जानकारी मझगांव पंचायत के लोगों को हुई तो वे बीडीओ कार्यालय के सामने आकर प्रदर्शन करने लगे.
पंचायती पेच...
पुतला दहन हुआ. जनता के दबाव में आकर बीडीओ ने मेरा इस्तीफा लौटा दिया. योजनाओं का अनुमोदन भी किया. अब पांच लाख रुपये और आये हैं. यानी 9.84 लाख रुपये. जिससे हम दस योजनाओं को कार्यान्वित करेंगे. इसमें पुल-पुलिया, पीसीसी निर्माण, मोरम रोड, भवन मरम्मत आदि शामिल है. हमने सर्वशिक्षा अभियान के तहत तीन विद्यालय भी खुलवाये हैं जो गोपापानी, लिटिया चुंआ, अरगनीदरा गांव में है. खास ये है कि इसमें पढ़ाने वाले पारा शिक्षक भी कोरबा आदिम जनजाति के ही हैं. एक बार तो एक बीडीओ से गांववालों ने जंग जीत ली है लेकिन अधिकारियों का गंठजोड़ बहुत बड़ा है. अधिकारी गांव को हाशिये पर रखने की मंशा के साथ काम करते हैं. सबकी तो नहीं कह सकती लेकिन कुछेक अधिकारी किसी की सुनना ही नहीं चाहते. इसे लेकर तनाव रहता है. लेकिन मेरे लिए सबसे खुशी की बात यह है कि डुमरी प्रखंड में 9 पंचायत है और मझगांव उनमें सबसे ज्यादा जागरुक है. लेकिन अगर ऐसे ही चलता रहेगा तो यहां भी भ्रष्टाचार की बू आने लगेगी. यदि पंचायतों को ठीक से काम करने दिया जाये तो भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी. जैसे हमलोगों ने मिलकर तय किया है कि बाहर के लोगों को ठेके पर काम न दिया जाये. मैं अन्ना को आदर्श मानती हूं. ये महापुरुष इस उम्र में भी भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद कर सकते हैं, सरकारी तंत्र का डट कर मुकाबला कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं. हम जागरूक रहेंगे तो विकास होगा लेकिन एक सीमा के बाद हमारे हाथ-पांव थम जाते हैं. आप बताइये कि चार-पांच लाख से कितना विकास कार्य होगा! एक साल से यही रवैया है. एक बहाना नक्सलियों का भी चलता है और बात-बेबात उन्हें तुर्रा-तर्क से जोड़ दिया जाता है. बहाना बनाने के लिए नक्सलियों को सामने ला दिया जाता है. मैं बताऊं, एक दिन रात को 10 बजे उन्होंने मुझे भी बुलवाया. मुझसे विकास योजनाओं के बारे में भी पूछा और फिर कहा कि आप जिस समाज से आती हैं उसके विकास का काम आप निडर होकर करें. अभी मेरी प्राथमिकता में सिंचाई परियोजना, चेक-डैम, तालाब, कल्वर्ट, पोखर आदि बनवाना है. दूसरी प्राथमिकता में शिक्षा है क्योंकि इसी से मानव विकास होगा और तीसरा स्वास्थ्य. क्योंकि पहाड़ पर रहनेवाले लोग जब बीमार होते हैं तो उनका मरना तय है. नीचे उतरते-उतरते ही देर हो जाती है. आदिम जनजाति के लिए कई योजनाएं सरकार की भी हैं लेकिन मैं जानती हूं कि अधिकतर कागजों पर ही पूरी होंगी. जमीन पर वे लागू तक नहीं हो पाती. पहाड़ी पर पूरी व्यवस्था को जैसे-तैसे चलाया जाता है. चाहे आंगनबाडी हो, अंत्योदय या कुछ और. जांच करनेवाले को खिला-पिला दिया जाता है और वे अधिकारी पहाड़ी पर चढ़ने की जहमत भी नहीं उठाते. बावजूद इन सबके, पहाड़ों पर पहाड़-सी जिंदगी को बदलने का इरादा रखती हूं. देखती हूं, कहां तक सफलता मिलती है. कोशिश तो मैं करती रहूंगी. मैं यह भी जानती हूं कि हक उम्मीदों से नहीं लड़ने से मिलता है और कई बार उसे छीनना भी पड़ता है...
प्रस्तुति- अनुपमा
(यह आलेख झारखंड सरकार की मीडिया फैलोशिप के अंतर्गत लिखा गया है.
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