शुक्रवार, 28 जून 2013

सब्जियों की खेती का ओपन स्कूल

राहुल सिंह
इस गांव का इतिहास त्याग से जुड़ा है. कहते हैं 500 ईस्वी पूर्व महाराजा मदरा मुंडा ने अपने बेटे मनीमुकुट राय को अपनी गद्दी नहीं देकर फनी मुकुट राय को गद्दी दी. यहीं से झारखंड में नागवंशियों के इतिहास की शुरुआत हुई. आज यह गांव अपने उद्यम, मेहनत कौशल से अपना वर्तमान भविष्य गढ़ रहा है. हम बात कर रहे हैं रांची से महज 17-18 किमी की दूरी पर बसे पिठौरिया की. गांव के एक एकड़ की जोत वाले किसान के चेहरे पर भी सुनहरी चमक है. यह चमक उसने अपनी मेहनत माटी की सेवा कर पायी है.
खेती के हिसाब से औसत मि˜ वाले इस पथरीले पहाड़ी गांव में तो बिहार-यूपी की तरह उर्वर भूमि है और ही पंजाब-हरियाण की तरह खेती के आधुनिक यंत्र संसाधन. फिर भी पिठौरिया उसके आसपास के 40 गांव के लोग खेती कर आत्मनिर्भर हैं. महत्वपूर्ण बात यह कि यहां के किसानों के पास बड़ी जोत नहीं है. पिठौरिया में सुबह में लगने वाली सब्जी मंडी में हर दिन पांच से छह लाख रुपये का कारोबार होता है 15 से 20 ट्रक सब्जियां बाहर भेजी जाती हैं. यहां प्रतिदिन दो हजार किसान अपनी सब्जियां बेचने आते हैं. इस क्षेत्र की खेती को एक नयी पहचान देने वाले किसान तिलेश्वर साहू गर्व से कहते हैं : यहां का हर किसान कृषि वैज्ञानिक है, उसे पता है कि खेती कैसे करनी है और बेहतर ऊपज कैसे मिलेगी. 1985 में 30 वर्ष से भी कम उम्र में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय की नौकरी छोड़ साहू ने अपना पूरा समय खेती में देना शुरू किया. दर्जनों पुरस्कार से सम्मानित तिलेश्वर साहू कहते हैं कि उन्होंने कभी खेती छोड़ी नहीं थी, हां नौकरी के कारण समय की दिक्कत होती थी, इसलिए नौकरी ही छोड़ दी. पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करने वाला उनका बेटा भी पूरी तरह से खेती में रमा हुआ है. 1946 में यहां के किसानों ने अपने हितों की रक्षा के लिए किसान पार्टी के नाम से अपना एक संगठन खड़ा किया था. यहां की मंडी का संचालन इसी के माध्यम से होता है. वार्षिक आमसभा के माध्यम से किसानों के बीच से ही इसके सदस्य पदाधिकारी चुने जाते हैं, इसलिए यहां बिचौलियों को कभी हावी होने का मौका भी नहीं मिला. किसान पार्टी ने पिठौरिया सहित आसपास के बच्चों की बेहतर शिक्षा के लिए 1977 में यहां किसान उच्च विद्यालय की भी स्थापना की. यहां के किसान चावल, गेहूं जैसे खाद्यान्न की खेती नहीं करते. इसके कारण हैं. किसान बताते हैं कि चावल-गेहूं की खेती में अच्छी कमाई नहीं होती. प्रति एकड़ 17 से 18 हजार रुपये खर्च होने के बाद मात्र 20 से 21 हजार रुपये हाथ में आते हैं. यानी शुद्ध मुनाफा तीन से चार हजार. दूसरा यह कि अनाज की खेती के लिए पर्याप्त भूमि पानी चाहिए, जबकि यहां के किसान के पास छोटी जोत हैं नदी, बांध की व्यवस्था भी नहीं है. ऐसे में सब्जी की खेती इनके लिए सबसे अच्छा विकल्प है.
यहां के किसानों ने भूमिहीन किसानों को भी आत्मनिर्भर बनाने की व्यवस्था की है. किसान पार्टी ऐसे लोगों को सब्जी देकर उन्हें रांची शहर में बेचने के लिए प्रेरित करती है, ताकि उसे कमाई हो और वह नौकरी-मजदूरी के लिए गांव से बाहर नहीं जाये.

जैविक खेती के बेहतर नतीजे

पिठौरिया उसके आसपास के गांव के किसान जैविक खेती पर निर्भर हैं. यहां के किसानों को रासायनिक खादों पर भरोसा नहीं है. किसानों का कहना है कि रासायनिक खाद दवा से हमें उत्पादन लागत नहीं मिलेगी. 50 किलो डीएपी की लागत जहां 1100 से 1200 रुपये के बीच आती है, वहीं इतनी जैविक खाद 200 रुपये से भी कम कीमत मंे मिल जाती है. हालांकि रासायनिक खाद की तुलना में जैविक खाद की अधिक मात्रा खेत में डालनी होती है. खाद-बीज के विक्रेता शुकदेव बताते हैं कि यहां के किसान रासायनिक खाद का प्रयोग नहीं के बराबर करते हैं. उनके अनुसार, जैविक खाद के प्रयोग से फसल के कीड़ों की वंशवृद्धि रुक जाती है, जबकि रासायनिक खाद से ऐसा संभव नहीं है. किसान बाल गोविंद साहू बताते हैं कि अच्छे से खेती करने पर एक एकड़ भूमि में एक फसल से 55 से 60 हजार रुपये जाता है. यानी खर्च काट कर भी एक फसल से कम से कम 40 हजार रुपये की बचत हो जाती है. गांव के किसान नकुल महतो, सागर साहू, राजेंद्र चौरसिया भी बेहतर खेती कर रहे हैं. यहां के किसानों से सब्जियों की खरीद के लिए रिलायंस ने अपना केंद्र भी खोल रखा है



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