गुरुवार, 27 जून 2013

सब्जी किसानों पर चवन्नी की चोट

भारत सरकार द्वारा अस्वीकृत कर दी गयी चवन्नी अचानक जनवरी महीने में रांची से सटे ठाकुरगांव में अस्तित्व में गयी. सब्जियों की बंपर फसल और भारी आवक के कारण किसान टमाटर की फसल को चार आने किलो की दर से बेचने पर मजबूर थे. सब्जी उत्पादन का हब बनने की कोशिश में जुटे झारखंड के किसानों पर अक्सर बाजार इसी तरह भारी पड़ जाता है. जी-तोड़ मेहनत करके किसान बंपर फसल उगाता है. मगर वही बंपर पैदावार उसके गले पड़ जाती है. भारी आवक के कारण बाजार मंदा हो जाता है और सब्जियां औने-पौने भाव में बिकने लगती है.

पुष्यमित्र
पनी खास भौगोलिक स्थिति और छोटी-छोटी जोत के कारण झारखंड के किसान सब्जियों की खेती को हमेशा से तरजीह देते आये हैं. रांची के पिठोरिया, ठाकुरगांव और तमाड़ और जमशेदपुर के पटमदा जैसे कई छोटे-बड़े पॉकेट पूरे झारखंड में विकसित हो गये हैं जो एक बड़े शहर को अकेले सब्जी खिलाने में सक्षम हैं. मगर सफलता की यह कहानी किसानों ने अपने दम पर लिखी है. तालाब और कुओं जैसे सिंचाई के साधन विकसित कर खेतों से हरा सोना उगाया है. तभी पिठोरिया में जवान लड़के अच्छी खासी पढ़ाई करने के बावजूद खेती को कैरियर के रूप में चुन रहे हैं. मगर उनकी यह सफलता तब काफूर हो जाती है जब अच्छी खासी उपज भी इनके लिए बोझ साबित होने लगती है. टमाटर चार आने किलो और बीन्स जैसी पौष्टिक सब्जी रुपये-दो रुपये किलो की दर से बिकने लगती है
इसी साल की कहानी है जब राजधानी रांची से सटे ठाकुरगांव में साप्ताहिक हाट में 25 पैसे किलो की दर से भी उनके टमाटर कोई खरीदने को तैयार नहीं था. दूसरी सब्जियों का भी वही हाल था. बीन्स 1 रुपये, बैगन 1 रुपये, मटर 5 रुपये, फूलगोभी 2 रुपये और बंदगोभी 1 रुपये किलो की दर से बिका. लाचार किसानों ने अपनी सब्जियां स्थानीय किसान समिति के हवाले कर दी. ट्रकों में भर कर हरी सब्जियां जमशेदपुर भेजी गयी मगर वहां उनके साथ और बुरा हश्र हुआ 40-40 किलो के बीन्स के पैकेट 10 रुपये में नीलाम हो गये.
सब्जी उत्पादकों के लिए यह कोई नयी कहानी नहीं है जब उनके जी तोड़ मेहनत के बाद भी बाजार सही कीमत देने के लिए तैयार नहीं होता. हर साल एक आध हफ्ते के लिए ऐसे हालात बन जाते हैं, जब सब्जियों को कौडि़यों के भाव खरीदने वाला भी नहीं मिलता. 2010 के दिसंबर माह में रांगामाटी के पास किसानों ने अपने टमाटर सड़कों पर डाल दिये थे. बंपर फसल होने के बावजूद उन्हंे खरीदार नहीं मिल रहे थे.
हैरत की बात तो यह है कि उस वक्त तत्कालीन कृषि सचिव एके सिंह ने कहा कि किसानों को सहकारी समिति बनाकर सब्जियों के विपणन का प्रयास करना चाहिए. सरकार उनकी सब्जियों नहीं खरीद सकती.
यह ठीक है कि जिस तरह सरकार किसानों का धान खरीद लेती है वह उनकी सब्जियां नहीं खरीद सकती. मगर उसके पास किसानों की इस समस्या की समाधान तो होना चाहिए. अपने दम पर झारखंड को वेजिटेबल हब में बदलने की कोशिश में जुटे किसानों को सरकार से तिनके का सहारा भी मिले तो इससे दुखद बात और क्या हो सकती है. ठाकुरगांव की स्थानीय किसान समिति के अध्यक्ष जगदीश कुमार कुशवाहा कहते हैं कि कोई और उपाय भी तो नहीं है. आलू और गाजर को छोड़ कर किसी और सब्जी को कोल्ड स्टोरेज में रखा नहीं जा सकता. फूड पार्क बनने की बात हुई थी मगर वह भी कब तक बनेगा इसके बारे में कुछ पता नहीं.
4 हजार किसानों की समिति के अध्यक्ष जब यह कहते हैं कि आलू और गाजर को छोड़ कर कोई और सब्जी कोल्ड स्टोरेज में नहीं रखी जा सकती तो हैरत भी होता है और दुख भी. देश के दूसरे इलाकों में टमाटर से लेकर फूल गोभी तक कोल्ड स्टोरेज में रखे जा रहे हैं और राष्ट्रीय सहकारिता विकास निगम से इसके लिए सहायता भी मिलती है. मगर अपने प्रदेश में इन छोटे उपायों पर बात नहीं की जाती.
जब भी इस तरह की समस्या उठती है तो फूड पार्क का जिक्र छेड़ दिया जाता है, जिसकी घोषणा 2005 में हुई थी और लीज 2011 के अंत में जाकर फाइनल हुआ. मगर अधिकांश किसानों और नीति नियंताओं को शायद ही यह पता होगा कि उस फूड पार्क में सब्जियों से संबंधित शायद ही कोई यूनिट बैठेगी. अधिकांश इकाइयों में बाबा रामदेव के पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड की सहायक औषधियां बनेगी. इसके लिए स्थानीय किसानों को अनाज और सब्जियां छोड़कर औषधीय पौधों की खेती की ओर बढ़ना पड़ेगा.

किसानों को चाहिए एक अदद नेता

इतिहास की किताबों में हम स्कूल कॉलेज के दिनों में पढ़ते थे कि अंगरेजों ने कांग्रेस की स्थापना इसलिए नहीं की थी कि यह भारत की आजादी की लड़ाई का एक मंच या माध्यम बन जाये. बल्कि इसलिए की थी कि यह एक सेफ्टी वॉल्व का काम करेगी और अंगरेज शासन को आसानी यह पता चल सकेगा कि भारत में विरोध आक्रोश के स्वर कैसे हैं और फिर उनको कैसे दबाया जाये. कुछ ऐसा ही हाल राजनीतिक दलों के किसान प्रकोष्ठों का है. कम से कम झारखंड के संदर्भ में तो यह बात सोलह आने सच है. राज्य के किसी भी दल का किसान संगठन तो सक्रिय हैं और ही अबतक उसके द्वारा कोई महत्वपूर्ण आंदोलन किया गया है या बड़ा मुद्दा उठाया गया है. जबकि अब भी राज्य में 80 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर है. वहीं 20 प्रतिशत वैसी आबादी जो उद्योग धंधों सरकारी नौकरियां पर निर्भर है, उनके निजी राजनीतिक संगठन राज्य में काफी सक्रिय हैं और समय-समय पर आंदोलन भी करते रहते हैं. ऐसे में हर तरह के नौकरीपेशा लोगों की समस्याएं सत्ता के गलियारे में पहुंचती भी हैं और उनका समाधान भी होता है. पर, बेचारा किसान उपेक्षित रहा जाता है.
राज्य में किसानों के इस संकट को स्वीकारते हुए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रदीप बलमुचु कहते हैं कि प्रत्येक राजनीतिक पार्टी का किसान प्रकोष्ठ निष्क्रिय है और उनका अपना कोई संगठन नहीं है. ऐसे में उनके सवाल अनसुने रह जाते हैं. बलमुचु के अनुसार, ऐसे में किसानों के लिए राज्य में मजबूत किसान संगठन होना जरूरी है, ताकि वे संगठित हो कर अपनी मांगे रख सकें. वहीं भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिनेशानंद गोस्वामी किसानों के लिए मजबूत संगठन होने की जरूरत के सवाल पर कहते हैं : किसानों के लिए संगठन है. हां, उनके हितों की रक्षा के लिए ग्रामसभा पंचायत निकायों को सक्रिय मजबूत करना जरूर आवश्यक है. ताकि जमीनी स्तर पर किसानों में सक्रियता जागरूकता आये.
झारखंड में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र या गुजरात की तरह किसानों के बीच से एक मजबूत नेतृत्व उभरना वक्त की जरूरत है. इसकी राह भी खुद किसानों को ही चुननी होगी. ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने अपने लिए सहाकारी समितियां बनायीं या अपने उत्पादों की बिक्री के लिए जगह-जगह तंत्र की स्थापना की है. पंजाब के गेहूं या आलू किसान की मांग हो या फिर महाराष्ट्र उत्तरप्रदेश के गन्ना किसानों के सवाल, उनकी गूंज दिल्ली संसद में भी सुनायी पड़ती है और हल भी निकलता है. यह सब उनके संगठन की बदौलत होता है. जिसके दबाव में सिर्फ राज्य की राजनीतिक पार्टियों के साथ राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियां सरकारें भी रहती हैं. झारखंड में भी अगर किसानों के एक ऐसे दबाव समूह उभरेगा, तो उसके बेहतर नतीजे आने वाले दिनों में आयेंगे



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