खड़िया भाषा के विकास की जब भी कहानी लिखी जायेगी डा. रोज केरकेा के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा. अपेक्षानुरूप पढ़ाई लिखाई न कर पाने के कारण जब रोज के पिता ने निराश होकर उसकी शादी करा दी थी तो उन्होंने शायद ही सोचा होगा कि उनकी यह बेटी एक दिन उनकी मातृभाषा को भाषा का दर्जा दिलाने में सबसे बड़ी भूमिका निभायेगी. आज न सिर्फ खडि़या भाषा को छपे हुए अक्षरों में लाने, झारखंडी भाषाओं की अस्मिता की लड़ाई को दिशा देने में उनका योगदान है बल्कि वे कई सामाजिक आंदोलनों से जुड़कर देश, राज्य और समाज की बेहतरी के लिए प्रयासरत हैं. झारखंड उनमें महाश्वेता देवी की छवि देखता है और उसी अनुरूप सम्मान देता है.
अपने अप्रतिम योगदान के लिए बिहार और झारखंड में मशहूर प्यारा केरकेटा की संतान रोज का जन्म खूंटी के नजदीक मुरहू गांव में हुआ था, जहां उनके पिता उस वक्त शिक्षक थे. उनका पैतृक गांव सिमडेगा के बोलबा प्रखंड के कसिरा सुंदराटोली में है. तीसरी तक उनकी पढ़ाई-लिखाई खूंटीटोली में, सातवीं तक उर्सलाइन कान्वेंट में हुई. मैट्रिकुलेशन संत मार्गेट स्कूल रांची से किया. 1963
में गुमला से इंटरमीडिएट, सिमडेगा कालेज से 1966 में बीए और एक साल के गैप के बाद 1969 में एमए किया.
रोज के परिवार में पढ़ाई-लिखाई का बेहतर माहौल था, उनके पिता चाहते थे कि वे अपनी बड़ी बहन की तरह साइंस लेकर मेडिकल करे, मगर उनकी रुचि मेडिकल में नहीं थी, लिहाजा वे फेल कर गयी. नाराज होकर पिता ने उनकी शादी कर दी. बाद में बीए और एमए किया. ससुराल में पढ़ाई का माहौल नहीं था और किताब खरीदने के लिए पैसे नहीं थे. उन्होंने सिमडेगा कालेज में लाइब्रेरियन की नौकरी शुरू कर दी.
लाइब्रेरियन की नौकरी उनके लिए वरदान साबित हुई. लाइब्रेरी की सारी किताबें पढ़ डालीं. पिता और अन्य लोगों के संसर्ग में लिखने की ओर भी उनकी रुचि जागृत हुई. प्रभात खबर में ही खडि़या भाषा में उनकी पहली कहानी पगहा जोरी-जोरी रे घाटो प्रकाशित हुई. इसके बाद तो लिखने का और दूसरी भाषाओं से खडि़या में अनुवाद करने का सिलसिला ही चल पड़ा. पढ़ाई के बाद उन्होंने धुर्वा स्थित पटेल मोंटेसरी कालेज में पढ़ाना शुरू किया. बाद में सिसई कालेज में नौकरी की. रांची विश्वविद्यालय में जब जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग खुला तो खडि़या भाषा के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया गया. रिटायर होने के बाद अब समाज सेवा में ध्यान लगा रही हैं.
रोज केरकेा की प्रमुख कृतियां
प्रेमचंद लुड़कोय(प्रेमचंद की कहानियों का खडि़या में अनुवाद)-1980
खडि़या लोक कथाओं का साहित्यिक और सांस्कृतिक अध्ययन-1992
अन्य कृतियां
जुझइर डांड़, लोदरो समधी, खडि़या गद्य-पद्य संग्रह, सिंकोय सुलो:
उनकी कहानी भंवर का तेलुगू में विपुला के नाम से अनुवाद किया गया है
उन्होंने पाब्लो नेरुदा की कविताओं का भी अनुवाद
किया है.
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