मंगलवार, 11 जून 2013

रंग ला रहा है समूह का प्रयास




रंग ला रहा है समूह का प्रयास



प्रशांत जयवर्धन
थरपुर गांव की तसवीर अब बदल रही है. रामगढ़ जिले के पतरातू प्रखंड के सुदूरवर्ती क्षेत्र में बसा है सुथरपुर गांव. सात टोलों में बंटे इस गांव में विकास की किरणों अभी नहीं पहुंची हैं, लेकिन गुणवत्ता समूह नवाटोला के ग्रामीणों का प्रयास सुथरपुर गांव को खास बना रहा है. इनके प्रयास से गांव के लोग स्वरोजगार व कृषि की उन्नत तकनीक से जुड़ रहे हैं. ग्यारह सदस्यीय गुणवत्ता समूह गांव को एक आदर्श गांव के रूप में विकसित करने को लेकर प्रयासरत है. ग्रामीण क्षेत्र के युवाओं को रोजगार से जोड़ने के लिए समूह ने सुथरपुर ग्राम विकास नीति नाम से एक एजेंडा तैयार किया है. इसके तहत गांव में खेती के लिए छोटे-छोटे बांध बनाकर खेतों तक पानी ले जाने की योजना है.
खेतीहर मजदूरों को अतिरिक्त आय से जोड़ने के लिए एक पत्तल समिति गठित की गयी है. समिति में कुल 11 सदस्य हैं. सदस्यों ने गुणवत्ता समूह से मिले सहयोग से पत्तल बनाने की मशीन तैयार की है. मशीन की सहायता से सभी स्वयंसेवी पत्तल तैयार करते हैं और प्रतिदिन अपनी उपस्थिति पंजिका में दर्ज करते हैं. स्वयंसेवी किसान जगेश्वर महतो, युगेश कुमार, बैजनाथ आदि प्रतिदिन दो से तीन घंटे समय निकालकर पत्तल निर्माण का कार्य करते हैं. इस तरह तैयार करीब 1500 पत्तलों की प्रतिदिन खुले बाजार में बिक्री की जाती है. इसकी कीमत काफी कम होती है. अभी करीब 10 हजार पत्तलों का निर्माण कर समूह के सदस्य इसे किसी बड़े बाजार में बेचने की योजना बना रहे हैं.
हरा-भरा हो अपना गांव योजना के तहत सुथरपुर के करीब एक एकड़ जमीन पर पौधरोपण किया गया है. यह जमीन गांव के सुरेंद्र महतो की है. गांव को हरा-भरा रखने के लिए सुरेंद्र महतो ने अपनी जमीन दी है. गुणवत्ता समूह के सदस्य गांव का विकास आधुनिक तरीके से करना चाहते हैं. समूह के युवा सदस्य रोहित कुमार गांव में ही पारा शिक्षक है. उन्होंने खेती के लिए उन्नत बीज व आधुनिक उपकरणों का प्रयोग किया है.  
रोहित ने कृषि ग्राम विकास केंद्र (केजीवीके) के सहयोग से गांव के किसानों को कृषि कार्य के लिए 10 वीडर व सीड ड्रील मशीन उपलब्ध कराया है. गांव के किसान बारी-बारी से इन मशीनों का उपयोग कर लाभ उठा रहे हैं. मशीन  के कारण किसानों को कम मेहनत में अच्छे परिणाम मिल रहे हैं. किसान विमल महतो ने श्री विधि (एसआरआइ पद्धति) से खेती कर दोगुनी पैदावार पायी है. विमल की सफलता को देख अब पूरे गांव के किसानों ने श्री विधि से खेती शुरू की है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के निजी चिकित्सक डा शिव चौधरी ने कुछ दिन पूर्व सुथरपुर गांव का दौरा किया था. उन्हें यहां का काम देख कर काफी आश्चर्य हुआ. उन्होंने ग्रामीणों के पास धुंआरहित चूल्हा, पत्तल बनाने की मशीन, पौधरोपण, कुंओं के मुंडेर की मरम्मत आदि कार्य  देखा. गांव के लोग कुंओं और रसोईघरों से निकलनेवाले पानी को भी उपयोग में लाते हैं. किचन गार्डेनिंग के तहत बेकार पानी को खेतों की सब्जियों के पटवन कार्य में उपयोग किया जाता है. गांव में जलछाजन का कार्य भी किया जा रहा है. गांव के सभी 23 कुंओं की मरम्मत और उनके मुंडेर का फिर से निर्माण किया गया है. इसमें गुणवत्ता समूह की महत्वपूर्ण भूमिका है.


हर बूंद से उपजा सोना


एक किसान के खेतों में उपजनेवाले फसल में अचानक दोगुनी वृद्धि हो जाये तो हर कोई आश्चर्य में पड़ सकता है. लोग सोचेंगे : भाई किसान ने ऐसा क्या जादू कर दिया! बैजनाथ महतो के खेतों में लहलहाती सरसों और टमाटर की फसल को देखकर ऐसे ही सवाल गांववालों के मन में आ रहे हैं. ओरमांझी प्रखंड के मनातू गांव के इस किसान ने डीप इरिगेशन पद्धति से अपने खेतों की सिंचाई कर यह कमाल कर दिखाया है. बैजनाथ महतो आज अपने आस-पास के किसानों के बीच चर्चा का विषय बन चुके हैं. बैजनाथ ने डीप इरिगेशन पद्धति अपनाकर न सिर्फ अपने फसलों का उत्पादन दोगुना कर लिया है, बल्कि खेतों में लगनेवाले पानी और खाद की खपत के खर्च को भी कम किया है.
डीप इरिगेशन पद्धति को अपनाकर कोई भी किसान बैजनाथ महतो की तरह लाभ उठा सकता है. इस पद्धति से खेती करने पर किसान को कम पानी व कम खर्च पर ज्यादा फसल प्राप्त होता है. इसमें दो फसलों के बीच 30 सेंटीमीटर की दूरी रखी जाती है और क्यारियों में बिछी पानी की पाइपों में इसी अनुपात में एक महीन छिद्र करके पानी को निकाला जाता है. पाइप से निकला पानी सीधे पौधों की जड़ों तक जाता है और जड़ों को काफी देर तक गीला बनाये रखता है. इस सिंचाई का प्रयोग इस मायने में भी किसानों के लिए फायदेमंद हैं कि आम पटवन के कारण पौधे के आस-पास उगनेवाले खर-पतवार पौधे के विकास में बाधा डालते हैं और पोषक तत्वों का नाश करते हैं. लेकिन डीप इरिगेशन पद्धति में खर-पतवार उतनी मात्र में नहीं उगते हैं.
बैजनाथ महतो ने भी खेती के पारंपरिक तरीकों से अलग हटकर वैज्ञानिक तरीकों से खेती करने की सोची. इसके लिए उसने कृषि ग्राम विकास केंद्र के कृषि विभाग से संपर्क किया. इसके बाद इन्होंने रायपुर (छत्तीसगढ़) जाकर डीप इरिगेशन पद्धति से की जानेवाली खेती को अपनी आंखों से देखा व जानकारियां हासिल की. तभी से वहां के किसानों की तरह अपनी भी किस्मत बदलने की ठानी. अपनी तीन एकड़ जमीन पर डीप इरिगेशन पद्धति से खेती कर बैजनाथ काफी खुशहाल है.


छह गांवों के घर-घर में बायोगैस चूल्हा

ओरमांझी प्रखंड के आधा दर्जन गांव की महिलाओं को लकड़ियां या कोयले जलाकर चूल्हे पर खाना पकाना रास नहीं आ रहा है. इनके घरों में अब लकड़ी या कोयले के चूल्हे की जगह बायोगैस चूल्हे ने ले लिया है. ओरमांझी के रुक्का, कुच्चू, कुल्ली, रुदिया, नेवरी, तुरु, विमलिया जैसे गांवों में घर-घर बायोगैस चूल्हा है. वातावरण स्वच्छ और पर्यावरण की भी सुरक्षा. इस बदलाव के पीछे कृषि ग्राम विकास केंद्र (केजीवीके) और एनआरएम (नेचुरल रिसोर्स मैनेजमेंट) की टीम की बड़ी भूमिका है. इनके प्रयास से ही इन गांवों में बायोगैस का उत्पादन और इससे होनेवाले फायदे से गांववाले अवगत हुए.बायोगैस  का उपयोग पूरी तरह से प्रदूषण रहित है और इससे कीटाणु और मच्छरों को भी पनपने से रोका जा सकता है. भारत देश के ग्रामीण क्षेत्रों में पशुपालन भी व्यापक पैमाने पर किया जाता है. इसलिए बायोगैस धुआं रहित अक्षय ऊर्जा का भंडार है. इसका सबसे ज्यादा लाभ गांवों में खाना पकानेवाली महिलाओं को हुआ है, जिन्हें खाना बनाते समय धुएं से होनेवाली परेशानी से छुटकारा मिलता है. अनुमानित तौर पर एक ग्रामीण परिवार प्रतिदिन दस से बारह किलोग्राम सूखी लकड़ियों को ईंधन के रूप में इस्तेमाल करता है और अकेला सालभर में 2.2 टन लकड़ियां ईंधन के रूप में जला देता है. यही कारण है कि अब गांवों में भी जलावन के लिए लकड़ियां कम पड़ने लगी हैं.इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर केजीवीके की टीम ने सबसे पहले वैसे लोगों का चयन किया, जिनके पास पहले से ही बायोगैस प्लांट तो थे, लेकिन जानकारी और रूचि के अभाव में वे बायोगैस प्लांट का उपयोग नहीं कर पा रहे थे. एनआरएम प्रमुख हाकिम मांझी घर-घर घूमकर ग्रामीणों को बायोगैस की उपयोगिता के बारे में बताते हैं. इस क्रम में श्री मांझी की नजर करमा पंचायत के रामसुंदर महतो के बायोगैस प्लांट पर गयी, जो करीब छह महीनों से बंद पड़ा था. उन्होंने रामसुंदर महतो को बायोगैस प्लांट को पुन: शुरू करने के लिए प्रेरित किया. इसके बाद रामसुंदर ने बायोगैस प्लांट में गोबर डालना शुरू किया. आज रामसुंदर का परिवार लकड़ी-गोइठा के पीछ दिनभर अपना समय बर्बाद नहीं करता, बल्कि बायोगैस से पूरे परिवार के लिए भोजन बनता है. ओरमांझी प्रखंड मुख्यालय से 15 किलोमीटर की दूरी पर करमा पंचायत का रुक्का गांव है. गांव की आबादी करीब 1200 है. यह आदिवासी बहुल गांव है. गांव के सूर्यनाथ मुंडा का परिवार जंगलों से लाये पत्ताें व लकड़ियों से खाना बनाता था. लेकिन अब गांव में उपलब्ध गोबर का इस्तेमाल बायोगैस प्लांट के लिए करता है. केजीवीके की पहल पर गांव का सूर्यनाथ मुंडा ही नहीं, बल्कि इसके जैसे कई ग्रामीण आज बायोगैस प्लांट लगाकर बायोगैस पर खाना बनाते हैं.

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