झारखंड गठन के बाद से ही प्रयास चल रहा था कि हम खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो जायें. काफी प्रयास हो रहे थे. सरकारी प्रयास तो नाकाफी थे ही प्रकृति भी हमारा साथ नहीं दे रही थी. जब प्रकृति ने साथ दिया तो हमने इतना कर दिया कि अब यहां के लोग कम से कम एक साल भूख से नहीं मरेंगे. खेती को मजबूरी का काम मानने वाले किसान आज गदगद हैं. उनके पास खाने का चावल हो गया है, जीविका चलाने के लिए कुछ नकद भी अनाज बेचकर हो जायेगा. पहली बार धान की अच्छी उपज को देखते हुए सरकार ने इसका सरकारी मूल्य तय कर दिया है. 1080
पैसे प्रति क्विंटल के हिसाब से धान खरीदी जा रही है. लैम्प्स पैक्स जो आम दिनों में खाली पड़ा रहता था, वहां आज अनाज के बोरे भरे पडे हैं. अब उनके पास रखने को जगह नहीं है. कांके प्रखंड कार्यालय स्थित लैम्प्स ने किसानों ने कह दिया है कि जब तक गोदाम से धान कुटाई के नहीं चला जाता, नयी धान की खरीद संभव नहीं हैं. यह किसानों के लिए परेशानी नहीं खुशी की बात है.
एक-दूसरे के संपर्क में आने से बढ़ा उत्पादन
डॉ एके सरकार, डीन, बीएयू
झारखंड में बेहतर खेती की काफी संभावनाएं हैं. राज्य के 22 लाख हेक्टेयर भूमि में खेती की जाती है. पिछले साल यहां उत्पादन व उत्पादकता में ऐतिहासिक वृद्धि हुई है. एक अध्ययन के अनुसार, झारखंड में प्रति हेक्टेयर धान का औसत उत्पादन 30 क्विंटल है. यहां लगभग 16.09 लाख हेक्टेयर भूमि पर धान की खेती व दो लाख हेक्टेयर भूमि पर गेहूं की खेती होती है. यह आंकड़ा पूर्व से अधिक है और यह लक्ष्य तभी हासिल हो सका है, जब किसान और विशेषज्ञ एक-दूसरे के संपर्क में आये. वैज्ञानिकों के सुझाव को किसानों ने अपना कर उनके बताये तरीके से खेतों का चुनाव किया, अच्छे बीज व उर्वरक का उपयोग किया. साथ ही सिंचाई की भी बेहतर तकनीक विकसित की. बीएयू के विशेषज्ञ से किसान मदद ले सकते हैं. इसके लिए कृषि विज्ञान केंद्र खोले गये हैं.
एसआरआइ से बदल रही खेती
पंचायतनामा डेस्क
झारखंड के किसानों के लिए बहु प्रचारित श्रीविधि यानी एसआइआइ (सिस्टम ऑफ राइस इनटेंसीफिकेशन)
वरदान साबित हो रही है. एसआरआइ का हिंदी में अर्थ है : चावल की उपज बढ़ाने की पद्धति. इस पद्धति का विकास कम पानी में भी चावल की अच्छी उजप हासिल करने के लिए किया गया है. फ्रांस के मेडागास्कर में फादर हेनरी डी लाउलेन ने सबसे पहले 1961 में इस पद्धति का प्रयोग किया. 1990
के दशक में इस पद्धति को विश्व स्तर पर लोकप्रिय बनाने में अमेरिका के डॉ नॉरमेन अपहॉफ ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान दिया. आज तेजी से किसान इस पद्धति को अपना रहे हैं. इस पद्धति को अपनाना तब और जरूरी हो जाता है, जब सूखे व कम बारिश की मार झेलने को हम मजबूर हैं.
धान झारखंड की सबसे महत्वपूर्ण फसलों में से एक है. वर्ष 2011 को अपवाद मान लिया जाये, तो हाल के सालों में राज्य को बार-बार सूखा झेलना पड़ा है. वर्ष 2010 में जब नाबार्ड ने इस पद्धति के प्रयोग में तेजी लाने की योजना बनायी तो तय लक्ष्य भी हासिल नहीं किया जा सका था. उस साल राज्य के 9806 किसानों को 2462 एकड़ भूमि में एसआरआइ पद्धति से खेती करने के लिए चिित किया गया था. पर, 5195 किसानों ने 1185 एकड़ भूमि में इस विधि से खेती की. यानी तय लक्ष्य का 53 प्रतिशत ही हासिल हुआ. वहीं, आश्चर्यजनक रूप से 2011 में स्थिति बदल गयी. तय लक्ष्य 29,400 किसानों के विरुद्ध
28,975 किसानों ने इस पद्धति को अपनाया व खेती की. इस वर्ष लक्ष्य 7350 एकड़ भूमि के विरुद्ध 7243 एकड़ भूमि पर एसआरआइ पद्धति से धान की खेती हुई. इस तरह नाबार्ड अबतक
34,170 किसानों को श्रीविधि से जोड़ने में सफल हुआ है.
एसआरआइ पद्धति को लेकर राज्य के विभिन्न जिलों के भी अलग-अलग आंकड़े आये. देवघर में सर्वाधिक 5865 किसान इस पद्धति को अपना चुके हैं. जबकि गढ़वा, बोकारो, गुमला, पाकुड़ सहित कुछ अन्य जिलों में कम संख्या में किसानों ने इस पद्धति को अपनाया. देवघर के बाद रांची, पूर्वी सिंहभूम, जामताड़ा, दुमका, हजारीबाग, लातेहार, पश्चिमी सिंहभूम, खूंटी व रामगढ़ से भी अच्छी संख्या में किसानों ने इस पद्धति को अपनाया. हालांकि नाबार्ड, राज्य सरकार व खेती के क्षेत्र में काम करने वाले विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं के प्रयास से तेजी से इस पद्धति के प्रति राज्य में किसानों का रुझान बढ़ने की संभावना है.
इस पद्धति से कम बारिश व कम पानी में भी बेहतर फसल हासिल की जा सकती है. अध्ययन से पता चलता है कि इस विधि से खेती करने से अनाज का उत्पादन 87 प्रतिशत तक अधिक हो सकता है, जबकि पुआल के उत्पादन में भी 65 प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है. एसआरआइ पद्धति से जहां मात्र दो सेे ढाई किलो प्रति एकड़ बीज चाहिये होता है, वहीं सामान्य विधि से खेती करने पर 20 से 25 किलो बीज प्रति एकड़ खर्च होता है. इस पद्धति से खेती करने पर खर्च भी कम आता है, जिससे किसानों को अच्छा लाभ होता है. एसआइआइ पद्धति से तैयार हुए धान के पौधों में दाने भी अधिक लगते हैं और सामान्य पौधों से इन दानों का वजन भी अधिक होता है. इस पद्धति में दवा व खाद भी कम लगती है. छोटे व सीमांत किसान इस पद्धति से खेती कर अपने परिवार के लिए अधिक दिनों के लिए खाद्य सुरक्षा तय कर सकता है.
विभिन्न स्तरों पर इस पद्धति को अपनाने व इसके तहत खेती किये जाने के लिए कोशिशें की जा रही है. एक बड़ी चुनौती यह है कि कैसे राज्य के तीन लाख वैसे किसानों को इस पद्धति से जोड़ा जाया, जिनके पास दो एकड़ से कम कृषि भूमि है. अगर ये किसान इस पद्धति को अपना लेंगे तो राज्य में धान का उत्पादन और बेहतर हो जायेगा. यह गरीबी दूर करने व खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने में भी सहायक साबित होगा.
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