राज्य महिला आयोग जो महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले को सही अंजाम तक पहुंचाने वाली अकेली संस्था है आज भी संसाधन और मैन पावर की कमी से जूझ रहा है. पूरे राज्य में संभवत: सिर्फ रांची में ही ऐसा महिला थाना है जिसमें प्रभारी महिला हैं. थाने अधिसूचित हैं मगर सक्रिय नहीं होने के कारण किसी काम के नहीं.
मानव तस्करी और डायन बिसाही जैसी समस्याओं से जूझ रहे झारखंड में ऐसे हालात का होना महिलाओं के प्रति संवेदनहीनता का उदाहरण ही माना जायेगा.
झारखंड इस साल को बिटिया वर्ष के रूप में मना रहा है. मगर राज्य की बेटियों की सुरक्षा के इंतजाम की सुधि लेने की दिशा में सरकार कितनी गंभीर है इसका पता इस आंकड़े से चल जाता है कि राज्य के 23 जिलों में रिमांड होम नहीं है. एकमात्र रिमांड होम देवघर में है, जहां विपत्ति में पड़ी महिलाओं की देख-रेख करने और उन्हें सहारा देने के लिए एक ही कर्मी है. कहने को तो राज्य के 24 जिलों में महिला थाने अधिसूचित हैं, मगर 19-20
जिलों में महिला थाने सक्रिय नहीं है. कहने को नाम तय कर दिये गये हैं कि फलां अधिकारी महिला थाने के मामले को देखेंगे. मगर इसके लिए अलग से न कोई स्ट्रक्चर है और न ही संसाधन. सिर्फ 4 या 5 जिलों में ये थाने सक्रिय हैं. इनमें से संभवत: एक ही महिला थाना रांची ऐसा है जिसकी प्रभारी महिला है. बांकी सभी महिला थानों के इंचार्ज पुरुष हैं. जो महिला थानों के पूरे संदर्भ को ही गलत ठहरा दे रहे हैं. पीडि़त महिलाएं इन हालातों में सहजता से वहां जा कैसे सकती हैं. वैसी ही हालत महिला हेल्पलाइन की है. बमुश्किल दो या तीन जिलों में ही ये सक्रिय हैं. इस तरह देखा जाये तो राज्य के 18 जिलों की महिलाओं की सुरक्षा के लिए सरकारी संवेदशीलता का स्तर शून्य है. यहां न रिमांड होम है, न महिला थाने हैं और न ही महिला हेल्प लाइन. महिलाओं के मुद्दों पर प्रखरता से अपनी बात रखने और उनकी लड़ाई लड़ने वाली संस्था झारखंड राज्य महिला आयोग खुद ही फंड और मैन पावर की कमी से जूझ रही है. यह उस राज्य की स्थिति है जहां नक्सलवाद के बाद सबसे अधिक हत्या डायन-बिसाही के नाम पर हो रही है. इसके अलावा हर साल हजारों लड़कियां शादी और नौकरी के नाम पर खरीदी-बेची और गायब की जा रही हैं.
राज्य में कुल 18 जिलों में महिला थाने अधिसूचित हैं, ये जिला हैं- हजारीबाग, कोडरमा, चतरा, देवघर, लोहरदगा, जमशेदपुर, चाईबासा, पाकुड़, गिरिडीह, गढ़वा, बोकारो, सिमडेगा, दुमका, सरायकेला- खरसावां, लातेहार, जामताड़ा, गुमला व साहेबगंज. इनमें से फिलहाल चार या पांच जिलों में ही महिला थाने काम कर रहे हंैं. राजधानी रांची में स्थित महिला थाने में महिला प्रभारी भी हैं मगर यहां संसाधनों और मैन पावर का संकट है. हजारीबाग में तो 2012 के जनवरी-फरवरी माह में एक भी मामला दर्ज नहीं हुआ है. वजह साफ है यहां के महिला थाने में प्रभारी पुरुष हैं. सदर थाना प्रभारी को ही महिला थाने का अतिरिक्त पदभार दे दिया गया है. हजारीबाग के महिला थाना में दो एसआइ(एक पुरुष और एक महिला), एक महिला हवलदार और तीन महिला सिपाही कार्यरत हैं.
वहीं रांची में कोतवाली थाना परिसर में एक महिला थाना है. थाना में प्रभारी महिला हैं. महिला थाना और महिला प्रभारी का फर्क साफ नजर आता है. इस थाने में पिछले एक साल में पारिवारिक विवाद से संबंधित 535 मामले आये. प्रभारी शीला टोप्पो ने 366 मामले में काउंसेलिंग कर दो परिवार को टूटने बचाया.
प्रभारी कहती हैं, महिलाएं पहले प्रताडि़त होने के बावजूद दूसरे थाना में पदस्थापित पुरुष पुलिस कर्मियों के पास नहीं जाती थी. वे हमारे पास खुलकर अपनी समस्या बताती हैं. थाना पर विश्वास बढ़ने के कारण रोजाना शिकायत करवाने करने के लिए आने वाली महिलाओं की संख्या भी बढ़ी हैं. मगर राज्य के दूसरे जिलों में महिलाओं के लिए यह सुविधा अभी भी सपना है.
(रांची से अमन तिवारी, हजारीबाग से सलाउद्दीन)
किसी भी राज्य की महिलाओं के लिए सबसे बड़ा सहारा महिला आयोग ही होता है. उसे लगता है कि अगर महिला आयोग तक उसकी शिकायत पहुंच गयी तो फिर कोई न कोई सकारात्मक समाधान निकल ही जायेगा. मगर अपने राज्य का महिला आयोग भी संसाधन और मैन पावर के घोर संकट से गुजर रहा है. आयोग की अध्यक्ष हेमलता एस मोहन भी दबे स्वर में स्वीकारती हैं कि संसाधन की कमी है और मैन पावर और चाहिये. वे काउंसिलिंग रूम के लिए भी प्रयासरत हैं. मगर वे कहती हैं कि इसके बावजूद हमलोग लगातार बेहतर काम कर रहे हैं. हमारे काम की चर्चा पहले होनी चाहिए संसाधनों का मसला बाद की बाद है. आयोग से जुड़े कई लोग साफ तौर पर बताते हैं कि आयोग के पास बजट का बड़ा टोटा है. पूरे राज्य के लिए सालाना 50 लाख रुपये ही मिलते हैं, यह राशि एडमिन कॉस्ट में ही व्यय हो जाती है. अगर आयोग ही मैन पावर की कमी से परेशान रहे और बजट की कमी से जूझे तो वह महिलाओं की सहायता कैसे करेगा, यह एक बड़ा सवाल है
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