गुरुवार, 6 जून 2013

                           आमुख कथा

केस स्टडी-1

पलामू में मनरेगा की सैकड़ों योजनाएं लंबित हैं. वहां की डीसी ने इस संबंध में डीडीसी व मनरेगा प्रभारी से रिपोर्ट तलब की है. कहा जा रहा है कि इनमें से बहुत सी योजनाओं को ग्रामसभा ने मनरेगा के प्रावधानों के अनुरूप पारित नहीं किया है. ऐसे में योजनाएं तकनीकी समस्या के कारण लंबित हैं.

केस स्टडी-2

चतरा जिले के लावालौंग प्रखंड की लमटा पंचायत में ही सभी विवादों का निबटारा होता है. पंचायत चुनाव के बाद इस पंचायत का अबतक एक भी मामला कोर्ट या पुलिस के पास नहीं पहुंचा है. यह पंचायत प्रतिनिधियो के प्रयास का नतीजा है.  इसी तरह बोकारो जिले के कसमार पंचायत में ग्राम सभा वर्षो पुराने जटिल मामलों को सहजता से सुलझा रही हैं

राहुल सिंह

दो केस स्टडी सरकारी मशीनरी की सुस्त चाल व ग्राम पंचायतों की संभावनाओं को बयां करती हैं. अगर पलामू में ग्रामसभा की ओर से मनरेगा की योजनाओं को पारित करने के दौरान उन्हें सरकारी कर्मी ने मनरेगा के तकनीकी पक्ष से अवगत कराया होता, तो इनमें से ज्यादातर योजनाएं पूरी हो जातीं, जिससे जिले के सैकड़ों गांव लाभान्वित होते. दूसरा उदाहरण यह बताता है कि पंचायत निकायों व उनसे जुड़े जनप्रतिनिधियों में कितनी संभावनाएं हंै. कैसे वे अपने यहां के विवाद को सुलझाते हुए अदालत व पुलिस पर से बोझ कम कर सकते हैं. साथ ही विकास में भी सक्रिय साङोदारी निभा सकते हैं.


पहली स्थिति लंबे समय तक पंचायत निकायों का गठन नहीं होने, गठन के बावजूद जनप्रतिनिधियों को उचित प्रशिक्षण नहीं मिलने व पारदर्शिता के अभाव एवं अफसरशाही के कारण हुई. महात्मा गांधी को इस बात का अहसास था, शायद इसलिए उन्होंने यंग इंडिया में लिखा था कि अगर पंचायतें अनियमित रहीं तो वे अपने ही भार से गिर कर टूट जायेंगी. कमोबेश बीते तीन दशकों में यही हाल झारखंड के गांवों-पंचायतों का रहा.
झारखंड एकमात्र राज्य रहा, जहां पेसा कानून लागू होने के बावजूद भी लंबे समय तक पंचायत चुनाव नहीं हुआ. 1996  में बनाये गये पेसा (पंचायत उपबंध का अनुसूचित क्षेत्र में विस्तार) कानून का प्रारूप तैयार करने वाली समिति के सदस्य रहे बंदी उरांव कहते हैं कि अगर पेसा कानून सही ढंग से लागू कर दिया जाये, तो राज्य में नक्सल व माओवाद जैसी गंभीर समस्या का भी बहुत हद तक समाधान हो जायेगा. उरांव कहते हैं कि पंचायत राज व्यवस्था व पेसा कानून में शक्तियां गांव के लोगों के पास हैं और यह विकास के लिए जरूरी भी है, इसलिए शक्तियों के हस्तांतरण को लेकर सरकारी तंत्र परेशान है.

32 वर्ष के बाद तमाम दबावों व विवशता के परिणामस्वरूप पंचायत चुनाव हुआ, पर उसके बाद भी हमारी पंचायती राज संस्थाएं सही ढंग से काम नहीं कर पा रही हैं. राज्य सरकार की ओर से पंचायतों को दिये जाने वाले अधिकारों के हस्तांतरण की प्रक्रिया धीमी है. यह धीमापन ऊब के साथ आक्रोश को भी जन्म दे रहा है. इसकी झलक जनवरी में उस समय देखने को मिली जब रांची जिला योजना समिति की बैठक के दौरान रांची जिला परिषद की अध्यक्ष सुंदरी तिर्की राज्य के पंचायती राज मंत्री सुदेश महतो से पंचायत प्रतिनिधियों को अधिकार व सुविधाएं नहीं मिलने पर उलझ पड़ीं. हालांकि मंत्री ने तब  उन्हें यह कह कर शांत कर दिया कि वे इस विषय को बाद में देखेंगे और हल निकालेंगे.  पर, यह अकेला वाकया नहीं है. जनवरी मध्य में कोडरमा जिले के पंचायतों के मुखिया सड़क  पर उतर गये व सरकार व प्रशासन के खिलाफ अपने गुस्से का प्रदर्शन करते हुए उपायुक्त को ज्ञापन दिया और अपने अधिकारों की मांग की. मुखिया की पीड़ा है कि जब वे ग्रामसभा की बैठक के माध्यम से योजनाओं का चयन कर प्रखंड मुख्यालय भेजते हैं, तो बीडीओ द्वारा उन्हें बताया जाता है कि इस योजना का चयन उनके द्वारा नहीं होगा, क्योंकि उन्हें इस काम का अधिकार ही अबतक नहीं मिला है. झारखंड राज्य पंचायत परिषद के प्रवक्ता व सरायकेला खरसावां जिला परिषद के उपाध्यक्ष देवाशीष राय कहते हैं कि पंचायत प्रतिनिधियों को अबतक केंद्र के महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों मनरेगा व बीआरजीएफ के कार्य के अधिकार मिले हैं. राज्य स्तर पर पंचायत राज प्रतिनिधियों को जो अधिकार दिये जाने हैं, उसमें ज्यादातर राज्य के दो उपमुख्यमंत्रियों सुदेश महतो व हेमंत सोरेन के विभागों से संबद्ध हैं.

केस स्टडी-2



इनमें से हेमंत सोरेन के विभाग पेयजल एवं स्वच्छता से संबद्ध कई अधिकार पंचायत निकायों को स्थानांतरित किये गये हैं, जबकि सुदेश महतो के विभाग के  अधिकार पंचायत निकायों को ढंग से अबतक स्थानांतरित नहीं किया गया है. राय एक ही सरकार के दो सबसे ताकतवर मंत्रियों के अलग-अलग रुख पर भी आश्चर्य प्रकट करते हैं.
पंचायत प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण देने के काम से जुड़े ग्राम स्वराज अभियान के अशरफी नंद प्रसाद कहते हैं कि राज्य में लंबे समय तक पंचायती राज संस्था के निष्क्रिय बने रहने का खामियाजा यह है कि आज ज्यादातर चुने हुए जनप्रतिनिधियों को अपना अधिकार पता नहीं है. हालांकि उनके अंदर इस बात की काफी जिज्ञासा है कि काम कैसे होगा व उन्हें पॉवर (अधिकार) कैसे मिलेगा.
केंद्रीय पंचायती राज मंत्रलय की ओर से वर्ष 2011-16 के लिए पंचायती राज व्यवस्था के लिए बनाये गये रोडमैप में स्पष्ट कहा गया है कि ऐसे पंचायत प्रतिनिधियों की बड़ी संख्या है, जो कम पढ़े-लिखे हैं और अपनी भूमिका, जिम्मेवारी, कार्यक्रम व तंत्र के बारे में नहीं जानते. इसलिए बेहतर पंचायती राज व्यवस्था के लिए
उन्हें समय-समय पर प्रशिक्षण देने की जरूरत है.
गुमला जिले की कामडारा पंचायत की मुखिया नूतन टोपनो कहती हैं कि मनरेगा व बीआरजीएफ (पिछड़ा क्षेत्र अनुदान कोष) के तहत उन्हें काम के कुछ अधिकार मिले हैं. प्रशासन से पर्याप्त सहयोग नहीं मिलने का दुख व्यक्त करते हुए वे बताती हैं कि शिक्षा, कृषि सहित अन्य क्षेत्रों से संबंधित अधिकार अबतक उन्हें नहीं मिले हैं.
स्थिति यह है कि राज्य की ज्यादातर   पंचायतों में बेहतर ढंग से कार्य संचालन के लिए समितियों का भी गठन नहीं किया गया है. झारखंड पंचायत राज अधिनियम 2001 की धारा 71 में पंचायतों में ठीक ढंग से कार्य संचालन के लिए सात तरह की समितियों के गठन की बात कही गयी है. ये हैं : 1. सामान्य प्रशासन समिति,  2. विकास समिति,  3. महिला, शिशु एवं सामाजिक कल्याण समिति, 4. स्वास्थ्य, शिक्षा एवं पर्यावरण समिति, 5. ग्राम रक्षा समिति, 6. सार्वजनिक संपदा समिति,  7. अधोसंरचना समिति. दूसरी ओर जिला परिषद के स्तर पर समितियों का गठन हुआ है. जिला परिषद व ग्राम पंचायत को कई अधिकार भी मिले हैं, पर पंचायत समितियों के अधिकार व कार्य अबतक सही ढंग से चि?ित नहीं किये जा सके हैं.
लोहरदगा जिला परिषद की अध्यक्ष जयवंती भगत स्वीकारती हैं कि अफसरशाही के कारण काम करने में दिक्कतें होती है. जयवंती देवी के अनुसार, बीआरजीएफ को छोड़ और किसी भी मद से कम करने का अधिकार अबतक नहीं मिला है और न ही अबतक प्रबंध पर्षद की बैठक ही हुई है. वे कहती हैं कि गजट के अनुसार, जिला परिषद के गठन के साथ ही जिला ग्रामीण विकास अभिकरण (डीआरडीए) का उसमें विलय हो जाता है. पर, अबतक नियमावली नहीं बनाये जाने के कारण दिक्कतें हो रही हैं. नियामवली का किस्सा भी राज्य में बड़ा दिलचस्प है. पंचायत निकायों के गठन के बाद  डीआरडीए का जिला परिषद में विलय हो जाना  चाहिए व इसके अध्यक्ष का पद जिला परिषद अध्यक्ष को मिलना चाहिए. इस संबंध में राज्य सरकार ने 18 अक्तूबर 2011 को सभी उपायुक्तांे व डीडीसी को नियमावली व एमओयू में संशोधन करने का निर्देश दिया.  कहा गया कि नियमावली में संशोधन कर जिला परिषद अध्यक्ष को डीआरडीए का अध्यक्ष बनायें. पर, राज्य के जिलों में  नियमावली में संशोधन नहीं हो पाया है. इसके लिए नियमावली नहीं मिलने को कारण बताया जा रहा है. ऐसे में अब तक जिला परिषद अध्यक्षों को डीआरडीए का अध्यक्ष नहीं बनाया जा सका है. राज्य सरकार के ग्रामीण विकास विभाग की अ ोर से एक बार फिर 17 दिसंबर 2011 को उपायुक्तों को पत्र लिख कर जिला परिषद अध्यक्षों को डीआरडीए का पद देने को कहा गया, पर उस पर भी अमल नहीं हो सका.
पिछले दिनों मुख्यमंत्री को समस्याओं से अवगत कराने वाली जयवंती भगत कहती हैंे, जब वे अधिकारियों से नियमावली बनाने या उसमें संशोधन को कहती हैं, तो उनका जवाब होता है प्रक्रिया जारी है. हजारीबाग जिला परिषद के अध्यक्ष ब्रजकिशोर जायसवाल प्रशासन की मंशा पर संदेह व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जो स्थितियां हैं, उसमें डीआरडीए की जिम्मेवारी मिलना मुश्किल लग रहा है.


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