शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

झारखंडी भाषाओं को सम्मान दिलाने में जुटी महिलाएं



कहते हैं आदिवासियों का चलना नृत्य और बोलना ही गीत है. झारखंड की संस्कृति और परंपरा काफी धनी है. यहां का आदिवासी समाज अन्य समुदाय के लोगों के साथ लंबे समय से साथ रहने के कारण धीरे-धीरे अपनी परंपरा से दूर होता जा रहा है. आदिवासियों की परंपरा को बचाने और उनकी भाषा, साहित्य और संस्कृति के विकास की दिशा में प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन कार्य कर रहा है. फाउंडेशन से जुड़ी आदिवासी महिलाएं इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं. इनका उद्देश्य आदिवासियों में जागरुकता लाना, घरेलू हिंसा को रोकना और आदिवासी समाज को विकास पथ पर लाना है.

झारखंड की नौ भाषाओं के विकास, लोगों के बीच इन भाषाओं के साहित्यकारों की पहुंच और इनका अधिक से अधिक प्रयोग हो, इसके लिए त्रैमासिक पत्रिका झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा का प्रकाशन किया जा रहा है. इसकी शुरुआत वर्ष 2004 में हुई थी. पत्रिका में सभी नौ भाषाओं नागपुरी, संताली, हो, खडि़या, मुंडारी, कुड़ुख, पंचपरगनिया, खोरठा और कुरमाली के लेख, कविता और कहानियां प्रकाशित होती हैं. इसका उद्देश्य विभिन्न भाषा के आदिवासी समुदाय के लोगों को अपनी भाषा-साहित्य के प्रति जागरूक करना है, ताकि वह अपना इतिहास अपनी ही भाषा में पढ़ें और स्वयं में गर्व महसूस करें. फाउंडेशन झारखंड की भाषाओं के विकास व झारखंड के गुमनाम रहे शिक्षाविद व साहित्यकारों को समाज के सामने लाने का कार्य कर रहा है. साथ ही भाषा, साहित्य व संस्कृति के विकास के लिए फाउंडेशन का अखड़ा मंच काम कर रहा है. संस्था का मानना है कि कृषि को परंपरा और विज्ञान से जोड़कर राज्य में विकास की गंगा बहायी जा सकती है. समाज को आगे ले जानेवाली परंपराओं को बढ़ावा मिले, ताकि राज्य से विस्थापन व पलायन पर विराम लग सके.
विभिन्न आदिवासी भाषा के लेखकों के लिए अखड़ा एक मंच है.  झारखंड की भाषाओं से जुड़ी पांडुलिपि को प्रकाशन के लिए रांची विश्वविद्यायल और टीआरआइ (ट्राइबल रिसर्च इंस्टीच्यूट) ने लिया था, लेकिन आज तक इनका प्रकाशन नहीं किया जा सका. इन अनमोल धरोहरों से आदिवासी समाज को जो गति मिलनी चाहिए थी, वह अबतक नहीं मिली है. संस्था उसे गति देने का कार्य कर रही है.
संताली भाषा के स्क्रप्टि पर काफी कार्य हो चुके हैं और इसका प्रचार-प्रसार भी हुआ है. हर भाषा के लिए एक-एक परिषद है और हर परिषद अपनी-अपनी भाषा की उन्नति के लिए कार्य कर रही है.
आदिवासी हितों व संस्कृति से जुड़े अगुवों पर संस्था डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाने का कार्य भी करती है. संस्था ने भाषा के विकास के लिए राज्यभर के लोगों से संपर्क कर अभियान चलाया. अभियान का ही प्रतिफल है कि झारखंड की नौ भाषाओं को सरकार ने द्वितीय राजभाषा का दर्जा दिया. संस्था अब इन भाषाओं के लिए अकादमी के गठन को लेकर प्रयासरत है. ऐसा होने से रोजगार के अवसरों का सृजन होगा और पलायन रुकेगा.
संस्था से जुड़ी महिलाएं आदिवासी समाज के बीच जागरुकता लाने का भी प्रयास कर रही हैं. इस अभियान के तहत महिलाओं के अधिकारों पर चर्चा की जाती है. आदिवासी समाज कृषक समाज है. महिलाएं भी खेतों में काम करती हैं. संस्था महिलाओं को किसान का दर्जा दिलाने के लिए प्रयासरत है. यदि कोई आदिवासी महिला अकेली है, अविवाहित है या फिर वृद्धा है तो भी वह आत्मनिर्भर नहीं होती. उसे भी पुरुष की तरह आत्मनिर्भर बनने का अधिकार दिलाने के लिए संस्था कार्यरत है. आदिवासी समाज में बेटी बोझ नहीं समझी जाती और यहां दहेज प्रथा जैसी कुरीति भी नहीं है. समाज की महिलाएं अभी भी घरेलू हिंसा की शिकार होती है. संस्था यह मानती है कि गांवों में इसका मुख्य कारण हडि़या है, जिसके कारण कई घर बरबाद हुए हैं. वैसे समाज कुछ तथाकथित अगुवाओं ने इसे सांस्कृतिक पेय की संज्ञा दी है. संस्था गांवों में रहने वाली महिलाओं ही नहीं, बल्कि पुरुषों को भी इस दिशा में जागरुक कर रही हैं. सभी को हडि़या के अतिसेवन से दूर रहने की सलाह दी जाती है, ताकि समाज के पुरुष इसमें पैसे को बरबाद न करें, जो उन्हें शारीरिक व आर्थिक रूप से कमजोर बनाता है.

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