<< उमेश कुमार >>
सन 1912 के प्रदेश विभाजन तक देवघर समेत सारा संताल परगना पश्चिम बंगाल के अंतर्गत था. सहज ही देवघर के परिवेश पर बांग्ला संस्कृति से प्रभावित दिखता है. सन् 1975 तक देवघर के करौं, मधुपुर, रिखिया, जसीडीह, नीलकंठपुर, बोम्पास टाउन जैसे शस्य श्यामला क्षेत्रों के पुराने वाशिदें के घरों में एक लोकोक्ति बहुत प्रचलित थी- ह्यजहां घरे पुकुर ना तार घोरे बिटी दिबो ना !ह्ण यानी जिसके घर पोखर नहीं है, उसके घर बेटी नहीं ब्याहूंगा. इस लोकोक्ति से साबित होता है कि पोखरे पुरानी ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था में आर्थिक संपन्नता के प्रतीक थे. इस कारण, पुराने जमींदार, रजवाड़े और सद्गृहस्थ बड़े उत्साह के साथ पोखर बनवाया करते थे. ये पोखर जहां नित्य के स्नान-ध्यान के बड़े केंद्र थे, वहीं मत्स्य-पालन , कमल, सार्खी फूल आदि उत्पादन द्वारा सीमांत आय के
साधन भी.
देवघर शहरी क्षेत्र में संपन्न लोगों ने इसी तर्ज पर बड़ी संख्या में पोखर खुदवाये थे. ये पोखर ह्यवाटर हार्वेस्टिंगह्ण में महान स्रोत थे. लेकिन, 80 के दशक में देवघर में जमीन के कारोबार ने बड़ी ऊंची रफ्तार पकड़ ली. जमीन के बदले मिलनेवाली कीमत ने निजी पोखरों के साथ-साथ सरकारी पोखरों के अस्तित्व पर भी ग्रहण लगा दिया. पर्यावरणविद् घनश्याम भाई ने सन 2004-06 में संताल परगना के तालाबों की परंपरा पर एक शोध अध्ययन करवाया था. ह्यदेवघर के लुप्तप्राय पोखरे : ठहरे हुए पानी का दर्दह्ण शीर्षक से संपन्न इस शोध अध्ययन के दौरान इस शोधकर्ता ने ज्ञान के किसी उदात्त शिखर का स्पर्श नहीं किया, बल्कि इतना भर जाना कि पोखरे बेकार के गड्ढे नहीं हैं! इनके पीछे हमारी देशज तकनीक, परंपरा, प्रकृति सम्मत जीवन की संस्कृति और आस्था का संबल है. आइये, देवघरके कुछ पोखरों की अवस्थित और जमीन पर उनके बने रहने के संघर्ष का अवलोकन करें -
शिवगंगा
लगभग 5000 की स्थानीय आबादी रोजाना यहां नहाती-धोती है और साल में 5000 मूत्तियां यहां विसर्जित होती है. ऊपर से जल भराई और निकासी का कोई खास इंतजाम नहीं. अनुमान सहज है कि शिवगंगा की क्या गत हुई होगी. शिवगंगा के जल के बारे में इतिहासकार डॉ राजेंद्रलाल मित्रा ने भी ब्रिटिशकाल में अपनी कुछ चिंता जाहिर की है. डॉ मित्रा ने लिखा है कि 900 गुणा 600 फीट क्षेत्रफलवाले शिवगंगा में जलस्तर 13 फीट था. पानी का रंग हरा था और शुद्ध नहीं था. आलम तब था जब छत्तीसी-बत्तीसी का पानी शिवगंगा में निर्बाध रूप से आता था.
मानसरोवर
देवघर में जिस पुरातात्विक महत्व के जलागार की सर्वाधित दुर्गति हुई है, वह नि:संदेह मानसरोवर अथवा मानसिंघी है. आज यहां शायद ही कोई नहाता है. सिर्फ धोबी लोग उत्तरी तट पर कपड़े धोने के लिए इस पोखरे को उपेक्षित छोड़ दिया है. यह आलम तब है जब इसके साथ बादशाह अकबर के सिपहसलार राजा मानसिंह का नाम जुड़ा है. अपनी ओडि़शा-यात्रा की सफलता के लिए मांगी गयी मन्नत के पूरा होने के उपलक्ष्य में मानसिंह ने सन् 1585 ई में इसे खुदवाया और इसके जल से बाबा वैद्यनाथ का अभिषेक किया. आज भी मानसिंह के समय चुनारगढ़ के बलुआही पत्थर से बने पुराने घाट यहां मौजूद हैं. घाटों की लंबाई 16 से 20 फुट तक है. यहां प्रयुक्त पत्थर कहीं-कहीं 5 गुणा 4 फीट के हैं.
जलसार
वास्तव में मानसरोवर के दक्षिण बना पोखर जल का संग्रह यानी सार ही है. कहते हैं कि राजा मानसिंह के काफिले के हाथी-घोड़ों की पानी संबंधी जरूरतें पूरी करने के लिए इस पोखरे का निर्माण किया गया था. बाद में यहां मत्स्य विभाग के तालाब भी बने. इधर जलसार का उत्तरी भाग थोड़ा विस्तारित करवा दिया गया है.
लेकिन, साल 2011 में मत्स्य विभाग के दो तालाबों को साबूत भर कर यहां सोलर प्लांट लगा दिया है. पर्यावरणविदों का मानना है कि तालाबों की कीमत पर विकास आत्मघाती हो सकता है.
हरदलाकुंड
मान्यता है कि सती का हृदय यहीं गिरा है. पर, धार्मिक पृष्ठभूमि के बावजूद 2007 तक यह पोखर एक सहज कूड़ेदान में तबदील हो गया था. लेकिन, जागरूक बंगभाषी समाज ने तत्कालीन स्थानीय विधायक का ध्यान आकृष्ट कराया और इसका जीर्णोद्धार हो गया. आसपास के जो कुएं सूख गये थे, उनमें फिर से पानी आ गया.
छत्तीसी
रामपुर मौजा का यह पोखर पूरब से लेकर पश्चिम तक जल-प्रवाह का पुराना स्रोत है. यह अब संकटग्रस्त हो चुका है.
बत्तीसी
यह पोखर अब भी जीवंत है. यहां पहले लोहे का गेट काम करता था. वर्षा में जब जलस्तर बढ़ जाता था तो गेट खोलकर अतिरिक्त पानी निकाल दिया जाता था. यह पानी छोटी जोरिया के रास्ते शिवगंगा में चला आता था. जोरिया में लोग नहाते-धोते थे. अब यह नाले में बदल चुका है.
संकटग्रस्त पोखर
जूनबांध, दूबे पोखर, साहेब पोखर, ढिबी पोखर, दाता पोखर, हालीमा बांध, सिमरगढ़ा पोखर, कोढि़या तालाब, सुंदरबांध, मानसरोवर के सटे पोखर, मोतिया तालाब, पांडे पोखर, रामपुर पोखर, नंदन पहाड़ पोखर, नर्मदा बांध, हरिशरणम कुटीर पोखर आदि.
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