<< राहुल सिंह >>
ये उदाहरण झारखंड में जल संरक्षण की गौरवशाली परंपरा, बेहतर जल प्रबंधन की बदौलत सुखी गांव की कहानी बताने के साथ ही भविष्य के खतरों को लेकर भी आगाह करते हैं. अपने राज्य के आधे लोगों को शुद्ध पेयजल नहीं मिलता, जबकि हमारे तीन-चौथाई खेतों की प्यास नहीं बुझती. इस दिशा में ध्यान नहीं दिये जाने के कारण यह स्थिति बनी. झारखंड में जल संरक्षण की पर्याप्त संभावना होने के बावजूद यहां उसके लिए बेहतर काम नहीं हो सका है. राज्य में शहरों के साथ गांव की भी स्थिति खतरनाक होती जा रही है. औसतन 1200 से 1400 मिली बारिश प्रतिवर्ष होने के बावजूद यहां जलसंकट बना रहता है. जिस साल अच्छी बारिश नहीं हुई, उस साल सूख पड़ना लगभग तय. बीते साल अच्छी बारिश ने पहली बार बेहतर फसल से किसानों की झोली भरी. बहरहाल, राज्य में पेयजल व सिंचाई दोनों ही स्तरों पर पानी की जबरदस्त किल्लत है.
राज्य के 52 प्रतिशत गांव में पेयजल की बेहतर व्यवस्था नहीं है, जबकि कुल कृषि भूमि के मात्र 24.5 प्रतिशत (हालिया सरकारी दावों के मुताबिक 38 फीसदी) हिस्से के लिए ही सिंचाई के साधन उपलब्ध हैं. जबकि देश के कुछ विकसित राज्यों में 70 से 80 प्रतिशत कृषि भूमि के लिए सिंचाई का साधन उपलब्ध है. राज्य में यह हाल तब है, जब 70 प्रतिशत किसान सिंचाई के लिए भू-जल पर ही निर्भर हैं. यह खतरनाक स्थिति है. पानी संचय के वैकल्पिक स्रोत विकसित नहीं किये जाने के कारण गंभीर जल संकट झेलना राज्य की मजबूरी बन गयी है. हालांकि बीते साल राज्य में पानी के संचय को लेकर दो अच्छी पहल हुई है. एक तो सरकार ने पहली बार एक स्पष्ट जल नीति बना कर पानी के दोहन, उसके संचय व सूखे से निबटने के लिए गाइड लाइन तय की. दूसरी पंचायत निकायों की भागीदारी पानी के प्रबंधन से संबंधित मामलों में स्पष्ट रूप से तय की गयी.
सिंचाई के मोर्चे पर अब तक फेल
दरअसल पानी को लेकर राज्य की की स्थिति ज्यों-ज्यों दवा की मर्ज बढ़ता ही गया वाली कहावत को चरितार्थ करता है. पूर्वी भारत का वन आच्छादित एक ऐसा राज्य जहां अच्छी बारिश होती है, वैसे राज्य में जल संकट शोचनीय मुद्दा है. राज्य सरकार द्वारा पिछले वर्ष बनायी गयी जल नीति में कहा गया है कि राज्य के 38 लाख हैक्टेयर फसली भूमि में 80 प्रतिशत भूमि सूखा व सात प्रतिशत भूमि बाढ़ झेलने को मजबूर है. सरकारी दावे के अनुसार मार्च 2012 तक राज्य की कुल फसली भूमि में 9.23 लाख हैक्टेयर भूमि में सिंचाई साधन उपलब्ध हो गया. राज्य सरकार ने 2017 तक 67 प्रतिशत कृषि भूमि को सिंचाई साधन उपलब्ध कराने की बात कही है. यानी झारखंड पांच वर्ष बाद राष्ट्रीय औसत के करीब पहुंचेगा. राज्य की 70 प्रतिशत कृषि भूमि सिंचाई के लिए भूजल पर निर्भर है. जबकि देश के विकसित राज्यों में 70 से 80 भूमि के लिए सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है.
सरकार ने पिछले वर्ष बनायी गयी अपनी जल नीति में जल उपभोक्ता समिति गठित कर उसके माध्यम से ही सिंचाई जल का प्रबंधन कराने की बात कही है. इसमें पंचायत निकायों को भागीदार बनाने की बात कही गयी है. लघु सिंचाई में इनकी भागीदारी कारगर साबित होगी. इस तरह की समिति प्रशासनिक आदेश या सरकार के द्वारा बनाये गये कानून के आधार पर काम करेगी. इसके ऊपर केनाल व जल संचय के अन्य माध्यमों के प्रबंधन की जिम्मेवारी होगी. साथ ही इस प्रोजेक्ट के माध्यम से स्वीकृत अन्य योजनाओं की भी जिम्मेवारी होगी. हालांकि आने वाले सालों में ही सरकार की जल नीति का फायदा समझ में आ सकेगा. अगर यहां सिंचाई की बेहतर व्यवस्था हो जाये, तो कृषि उत्पाद में दोगुणी वृद्धि हो सकती है.
पेयजल की भी स्थिति चिंताजनक
राज्य में बीते सालों में साफ व शुद्ध पेयजल की मांग बढ़ी है. 1991-2001 व 2001-2011 के बीच राज्य की आबादी क्रमश: 24.55 प्रतिशत व 22.3 प्रतिशत बढ़ी. लेकिन इस अनुपात में यहां पेयजल की उपलब्धता नहीं बढ़ी.
इस संबंध में आंकड़े चौकाने वाले हैं. देश के विभिन्न विकसित राज्यों में ग्रामीण पाइप पेयजल आपूर्ति योजना मजबूत हो चुकी है. गुजरात में 50, 000, कर्नाटक में 61, 000, महाराष्ट्र में 27, 000 व तमिलनाडु में 64, 000 ग्रामीण पाइप पेयजल आपूर्ति योजना काम कर रही है, जबकि झारखंड में मात्र 350 पाइप पेयजल आपूर्ति योजना काम कर रही है, उनमें भी सबों की स्थिति व रख-रखाव अच्छी नहीं है. चालू वित्तीय वर्ष में सरकार ने 1000 से अधिक आबादी वाले 1197 गांवों में छोटी ग्रामीण जलापूर्ति योजना के क्रियान्वयन का लक्ष्य रखा है.
सरकार की कोशिश है कि पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित कराने में शहर व गांव दोनों स्तरों पर लोगों की अधिक से अधिक भागीदारी सुनिश्चित करायी जाये. सामुदायिकता के आधार पर व स्थानीय निकायों के माध्यम से पेयजल साधनों की मरम्मत, रख-रखाव व संचालन किया जाये. वर्तमान में 93 प्रतिशत आबादी को नलकूपों से सात प्रतिशत आबादी को ग्रामीण पाइप जलापूर्ति योजना से पानी की आपूर्ति की जा रही है.
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