।।हरिवंश।।
प्रभात खबर अखबार का जन्म, प्रसार और फैलाव भी स्थापित गणित के विपरीत
ही रहा है. जब बिहार देश का सबसे पिछड़ा इलाका था, तब बिहार का भी सबसे पिछड़ा क्षेत्र छोटानागपुर (तब झारखंड
नहीं बना था) था. वहीं से (रांची) प्रभात खबर निकला. उन दिनों
अखबार निकालने का व्याकरण था, बड़े महानगर या बड़े शहर या राजधानी
से प्रकाशन. क्योंकि उपभोक्ता वहीं थे. आज झारखंड के अलग राज्य होने पर मुनाफा कमाने या प्रभाव, असर बढ़ाने या मध्य वर्ग को पाठक बनाने बाहर से बड़े-बड़े प्रकाशन आ धमके हैं, पर जब स्थानीय संघर्ष,
रचना और सपनों से जुड़ कर सजग समाज बनाने की जरूरत थी, तब इस कठिन यात्र में कुछेक स्थानीय अखबार ही थे. जब
घाटा उठाना था, चुनौती थी, तब ये खिलाड़ी
नहीं थे. आज तो कई हैं
पंचायतनामा भी पत्रकारिता में एक प्रयोग है. प्रभात खबर की तरह. आज अंगरेजी, हिंदी या अन्य भाषाओं के अखबारों में होड़ है कि शहरी और संपन्न पाठकों तक हम कैसे पहुंचें? 30 करोड़ भारतीय मध्य वर्ग (एक अनुमान के अनुसार) पर कैसे हमारा कब्जा हो? क्योंकि यही उपभोक्ता हैं. और उपभोक्ता वस्तुओं का विज्ञापन भी इनके कारण ही मिलता है. और विज्ञापन ही आय के मुख्य स्रोत हैं. तब गांवों, पंचायतों, ब्लॉकों तक पहुंचने की बात और प्रयास, धारा के विरुद्ध तैरना है. यह आमद का स्रोत नहीं या मुनाफे का काम नहीं है.
पर प्रभात खबर अखबार का जन्म, प्रसार और फैलाव भी स्थापित गणित के विपरीत
ही रहा है. जब बिहार देश का सबसे पिछड़ा इलाका था, तब बिहार का भी सबसे पिछड़ा क्षेत्र छोटानागपुर (तब झारखंड
नहीं बना था) था. वहीं से (रांची) प्रभात खबर निकला. उन दिनों
अखबार निकालने का व्याकरण था, बड़े महानगर या बड़े शहर या राजधानी.
क्योंकि उपभोक्ता वहीं थे. आज झारखंड के अलग राज्य
होने पर मुनाफा कमाने या प्रभाव, असर बढ़ाने या मध्य वर्ग को
पाठक बनाने, बाहर से बड़े-बड़े प्रकाशन
आ धमके हैं, पर जब स्थानीय संघर्ष, रचना
और सपनों से जुड़ कर सजग समाज बनाने की जरूरत थी, तब इस कठिन
यात्र में कुछेक स्थानीय अखबार ही थे. जब घाटा उठाना था,
चुनौती थी, तब ये खिलाड़ी नहीं थे. आज तो कई हैं.
उसी तरह आज हिंदी पीढ़ी के गांव, ब्लॉकों और पंचायतों को इस आधुनिक दुनिया
की नॉलेज, इकॉनोमी, प्रबंधन और व्यवस्था
से जोड़ने की चुनौती है. शासन, व्यवस्था
और विकास की इकाई गांव, पंचायत, पंचायत
समिति या जिला परिषद बन रहे हैं. उनके सामने क्या चुनौतियां हैं? इस व्यवस्था के तहत ग्रासरूट पर आज हजारों नये-नये नेतृत्व
उभर रहे हैं. मुखिया, ब्लॉक प्रमुख,
जिला परिषद अध्यक्ष, वार्ड सदस्य, पंचायत समिति सदस्य व जिला परिषद सदस्य वगैरह बन कर. इस ग्रासरूट द्वार (पंचायती व्यवस्था) से हजारों, लाखों की संख्या में नयी और युवा ताकतें भारतीय
राजनीति में प्रवेश कर रही हैं. स्त्री शक्ति का उदय हो रहा है.
ये ही ताकतें आगे चल कर देश की बागडोर संभालेंगी. मुल्क को सजाने व संवारने का काम करेंगी. पंचायत या गांव
को विकास या राजनीति की मुख्य इकाई मान लेने से, संभावनाओं के
अनेक द्वार, इस नये दौर में खुलेंगे. उन
संभावनाओं को रेखांकित करने और गांव-देहात तक पहुंचाने का काम
भी पंचायतनामा करेगा.
पंचायत सेवक,
मुखिया, प्रधान, बीडीओ,
गांव सभा वगैरह को केंद्र मान कर पंचायत या गांव सचिवालयों की चर्चा
हो रही है. गांव, पंचायत, ब्लॉक व जिला
परिषद के लोग स्वशासन की ओर उन्मुख हों, यही अब विकल्प है.
देश को कारगर ढंग से चलाने का. अब संसद या विधानमंडलों
से ही बात पूरी नहीं होती. लोकतंत्र में मंदिर कही जानेवाली ये
संस्थाएं लंबे अनुभव के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंची हैं कि स्वशासन विकास की इकाई गांव,
पंचायत या ब्लॉक बनें. याद करिए पंडित नेहरू के
जमाने में सामुदायिक विकास अभियान की कोशिश. पर उससे भी पहले
आधुनिक भारत के निर्माता महात्मा गांधी ने शासन में गांव को मूल इकाई मानने की बात
की थी. ग्राम स्वराज की परिकल्पना की थी. कहा था, भारत गांवों में बसता है. गांव के लोग अपनी परिकल्पना स्थानीय संसाधन वगैरह से अपनी नियति संभालें,
तो एक नये भारत का उदय होगा. गांधी के अनन्य सहयोगी
और उनके आर्थिक विचारों के प्रतिपादक जेसी कुमारप्पा आज किसे याद हैं? उनकी बड़ी चर्चित किताब है, कैप्टलिज्म, सोशलिज्म एंड विलेजिज्म (पूंजीवाद, समाजवाद और गांववाद). भारत के नवनिर्माण का रास्ता गांव
की गलियों से गुजरता है. यह बात आजादी की लड़ाई के मनीषियों ने
कही थीं. आज की सरकारें मजबूरन ऐसा कर रही हैं. क्योंकि विकास के लिए दूसरा विकल्प नहीं है.
इन दिनों पश्चिम के बड़े अखबारों में पूंजीवाद के संकट
पर बहस चल रही है. नोबेल पुरस्कार
विजेता से लेकर पश्चिम के बड़े चिंतक अपनी बातें लिख रहे हैं. बाजारवाद, उपभोक्तावाद की खामियां गिना रहे हैं.
लोभी समाज और अकेले पड़ते इनसान की पीड़ा बता रहे हैं. उधर फिदेल कास्त्रो उम्र के इस पड़ाव (लगभग
90) पर अपने जीवन से जुड़ी पुस्तक का लोकार्पण करते कह रहे हैं कि समाजवाद
पर्याप्त नहीं है. यानी 90 वर्ष के अपने
संघर्ष पर खुद ही सवाल खड़ा कर रहे हैं. एक सूनापन का एहसास कर
रहे हैं.
आज की दुनिया इस मोड़ पर है. इस माहौल में गांधी के गांव की परिकल्पना
को सोचें. प्रो कुमारप्पा के गांववाद का विचार करें. धीरेंद्र मजूमदार (समग्र गांव सेवा जैसी पुस्तक के लेखक),
दादा धर्माधिकारी, जयप्रकाश नारायण और विनोबा को
याद करें जो शुरू से गांवों को केंद्र मान कर विकास और राजनीति की बात करते रहे.
यह धारा एक विचार है, जो गांव को समग्रता में देखता
है. आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से गांवों
की मजबूती.
इकबाल ने कहा था कि यूनान, रोम वगैरह मिट गये, जहां (दुनिया) से, फिर भी भारत कायम है. तो इसके मूल में हैं भारत के गांव.
वहां के सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्य, सरोकार.
भारत के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग ढंग की गांव
व्यवस्थाएं रही हैं. वैशाली का गणतंत्र, आदिवासी इलाकों की गांव व्यवस्था, स्वशासन वगैरह.
देश के किसी भी भाग का इतिहास पलटिए, अलग-अलग गांव स्वशासन के उदाहरण मिलेंगे.
एक अर्थ में गांव पंचायतों का काम अपनी पुरानी व ऐतिहासिक
जड़ों से जुड़ने का भी है. पंचायतनामा
इस प्रयोग का मंच बनेगा. गांव, ब्लॉक,
जिला, कमिश्नरी, राज्यों
की राजधानियों और दिल्ली के बीच, गांवों के सवालों पर सेतु या
मंच बनने का काम. लेकिन पंचायतनामा भारत की इस पुरानी पंचायत
व्यवस्था, गांव व्यवस्था को रेखांकित करने का ही काम नहीं करेगा.
इस पत्रिका में आप पायेंगे भारत के पुनर्निर्माण की कहानी, पंचायतों के माध्यम से कैसे लिखी जा रही है? कहां,
किन पंचायतों का युवा या महिला नेतृत्व अनुकरणीय काम कर रहा है.
उनकी सफलताएं एवं चुनौतियां क्या हैं? गांव स्तर
पर स्कूल, अस्पताल, सड़क, सिंचाई, खेती यानी समग्र गांव विकास प्रबंधन की सफलताएं
और अड़चनें क्या हैं? गांवों के लिए दिल्ली से लेकर राज्य की
राजधानियों में क्या योजनाएं हैं? और गांवों के लोग इन योजनाओं
को धरातल पर या क्रियान्वयन स्तर पर कैसे देखते-पाते हैं?
इसके अतिरिक्त गांव के लोग प्रशासन, गवर्नेंस से जुड़ी अपनी पीड़ा भी बतायेंगे.
गांवों की युवा शक्ति अपने सपनों व संघर्र्षो की बात करेगी. उसके कैरियर गाइडेंस की चर्चा भी होगी. महिला शक्ति के उदय व नये भारत के निर्माण में
योगदान की बातें होंगी.
पत्रकारिता में यह नया प्रयास है. हिंदी इलाके बीमारू राज्य माने जाते रहे
हैं. गांवों के कायापलट से ही यह बीमारी दूर होगी. इस बीमारी से मुक्ति और स्वस्थ-खुशहाल हिंदी पीढ़ी का
उदय इस पत्रिका का ध्येय होगा. इस पत्रिका के संपादन का दायित्व संभाला है,
एक अनुभवी और प्रखर पत्रकार संजय मिश्र ने. युवा
संजय को पत्रकारिता में दिल्ली से लेकर कई जगहों पर काम करने का व्यापक अनुभव है.
वह व्यवस्था की बारीकियों को जानते हैं. वह पहले
प्रभात खबर के एक संस्करण के संपादक थे. अब उन्होंने इस चुनौतीपूर्ण
दायित्व को संभाला है. इससे उनका पैशन (प्रतिबद्धता) पता चलता है.
पत्रिका सामयिक हो और पैशन से जुड़े लोग उसमें हों, तो फिर एक नया अध्याय बनना ही है.
पर पाठकों के सहयोग से ही.
पाठक इस नये प्रयोग से जुड़ेंगे, क्योंकि पंचायतनामा भी एक अभियान है,
गांवों के पुनर्निर्माण का. कायाकल्प का.
उसी तरह जैसे प्रभात खबर अखबार नहीं आंदोलन है